भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 231

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-16
दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव
दैवीय स्वभाव वाले लोग

   

श्रीभगवानुवाच

1.अभयं सत्त्वसंशुद्धिज्र्ञानयोगाव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥

श्री भगवान् ने कहाः निर्भयता, मन की शुद्धता, ज्ञान और योग का बुद्धिमत्तापूर्ण विभाग, दान, आत्म-संयम और यज्ञ, शास्त्रों का अध्यन, तप और ईमानदारी;भारतीय धार्मिक प्रतीकवाद में देवों, जो चमकते हुए हैं, और असुरों (दैत्यों) में, जो अन्धकार के पुत्र हैं, किया गया भेद बहुत प्राचीन है। ऋग्वेद में हमें देवताओं और उनके तमोमय विरोधियों में संघर्ष दिखाई पड़ता है। रामायण में भी श्रेष्ठ संस्कृति के प्रतिनिधियों और असंयत अहंवादियों में इसी प्रकार का संघर्ष दिखाया गया है। महाभारत में पाण्डवों, जो कि धर्म, नियम और न्याय के भक्त हैं, और कौरवों में, जो कि सत्ता के प्रेमी हैं, हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से मानव-जाति आश्चर्यजनक रूप से एक ही नमूने की रही है और आज भी हमें महाभारत के काल की भाँति ही कुछ मनुष्य ऐसे मिलते हैं, जो देवताओं के समान भले हैं और कुछ ऐसे, जो पैशाचिक रूप से पतित हैं और कुछ ऐसे, जो निन्दनीय रूप से उदासीन रहते हैं। ये हैं उन मनुष्यों के सम्भावित विकास, जो कि कुछ कम या अधिक हम जैसे ही हैं। देव और असुर, दोनों का जन्म प्रजापति से हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद् 1, 2, 1।

2.अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम्॥

अहिंसा, सत्य, क्रोधरहितता, त्याग, शान्ति, दूसरों के दोष ढूंढने से विरक्ति, प्राणियों पर दया, लोभरहितता, मृदुला, लज्जा और अचंचलता (स्थिरता);

3.तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥

तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, द्वेषहीनता, अत्यन्त अभिमानी न होना, हे भारत (अर्जुन), ये उस व्यक्ति के गुण हैं, जो दैवीय स्वभाव लेकर जन्म लेता है।मानव -जाति अहुरमज्द के राज्य और अहरीमन के राज्य में नहीं बंटी हुई। प्रत्येक मनुष्य में प्रकाश और अन्धकार के ये दोनों राज्य विद्यमान हैं।गुरु ने यहाँ पर उन लोगों के पहचान कराने वाले गुण बताए हैं, जो दैवीय पूर्णता तक पहुँचने की साधना कर रहे हैं। अब वह उन लोगों के गुण बताता है, जिनका उद्देश्य सत्ता, यश और सुविधापूर्ण जीवन प्राप्त करना है। दोनों में भेद न तो ऐकान्तिक ही है और न सर्वागीण ही। अनेक व्यक्तियों में दोनों प्रकार के स्वभावों का अंश मिला रहता है। महाभारत में कहा गया है: ’’कुछ भी सम्पूर्णतया अच्छा या सम्पूर्णतया बुरा नहीं है।’’[1]

आसुरीय स्वभाव वाले लोग

4.दम्भो दर्पोअभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्॥

पाखण्ड, घमण्ड, अत्यधिक अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान, हे पार्थ (अर्जुन), ये उन लोगों की विशषताएं हैं, जो आसुरीय स्वभाव लेकर उत्पन्न होते हैं।

इनके अपने-अपने परिणाम

5. दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धयासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोअसि पाण्डव॥

दैवी सम्पदा (गुण) मोक्ष दिलाने वाली और आसुरी सम्पदा बन्धन में डालने वाली कही जाती है। हे पाण्डव (अर्जुन), तू दुःखी मत हो, क्योंकि तू- (दिव्य भवितव्यता के लिए) दिव्य सम्पदा लेकर उत्पन्न हुआ है।यहाँ एक भक्त हिन्दू के परम्परागत गुणों को एक जगह संकलित कर दिया गया है, जो जीवन की एक ’दैवीय’ दशा के सूचक हैं। असुर लोग चतुर और ऊर्जस्वी (शक्तिशाली) होते हैं, परन्तु वे अत्यधिक अहंकार के शिकार होते हैं और उनमें नैतिक धर्मभीरुता नहीं होती और न उनका कोई आध्यात्मिक लक्ष्य ही होता है।

आसुरीय स्वभाव

6. द्वौ भूतसर्गौ लोकअस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥

इस संसार में दो प्रकार के प्राणियों का सृजन किया गया है। दैवीय और दूसरे आसुरीय। दैवीय स्वभाव वालों का विस्तार से वर्णन किया जा चुका है। हे पार्थ (अर्जुन), अब तू मुझसे आसुरीय स्वभाव वालों के विषय में सुन।देखिए बृहदारण्यक उपनिषद् 1, 3, 1।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नात्यन्तं गुणवत् किच्चिन्नात्यन्तं दोषत्तथा।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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