भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-15
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष यत्नपूर्वक साधना में लगे हुए योगी लोग उसे आत्मा में स्थित देखते हैं, परन्तु अबुद्धिमान् और अनुशासनहीन आत्माओं वाले लोग यत्न करके भी उसे नहीं देख पाते। 12.यदादित्यगतं तेजो जगद्धासयतेअखिलम्। सूर्य में जो तेज है, जो इस सारे संसार को प्रकाशित करता है और चन्द्रमा में और अग्नि मे जो तेज है, उसको तू मेरा ही तेज समझ। 13.गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। इस पृथ्वी में प्रविष्ट होकर मैं अपनी प्राण-शक्ति द्वारा सब प्राणियों को धारण करता हूं; और रस से भरा हुआ सोम (चन्द्रमा) बनकर मैं सब जड़ी-बूटियों (या वनस्पतियों) का पोषण करता हूँ। 14. अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। जीवित प्राणियों के शरीर में मैं जीवन की अग्नि बनकर और उनके अन्दर आने वाले श्वास और बाहर निकलने वाले श्वास में मिलकर मैं चारों प्रकार अन्नों को पचाता हूँ।पचामि: शब्दार्थ है पकाना। 15.सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो और मैं सबके हृदय में बैठा हुआ हूं; मुझसे ही स्मृति और ज्ञान तथा उनका विनाश होता है। वस्तुतः मैं ही वह हूं, जिसको सब वेदों द्वारा जाना जाता है। मैं ही वेदान्त का बनाने वाला हूँ और मैं ही वेदों का जानने वाला हूँ।[1]अपोहनम्: हानि, विनाश, निषेध। 16.द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एवं च। इस संसार में दो पुरुष हैं- एक नश्वर और दूसरा अनश्वर; नश्वर ये सब अस्तित्व (वस्तु एवं व्यक्ति) हैं और अपरिवर्तनशील (कूटस्थ) अनश्वर है। 17.उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। परन्तु इनसे भिन्न एक और सर्वात्तम आत्मा है, जिसे परम आत्मा कहा जाता है, जो अमर ईश्वर के रूप में इन तीनों में प्रविष्ट होता है और इनका भरण-पोषण करता है।सदा परिवर्तनशील विश्व में विद्यमान आत्मा क्षर है; अक्षर वह नित्य आत्मा है, जो अपरिवर्तनशील है, गतिहीन है और जो परिवर्तनशील वस्तुओं में भी अपरिवर्तनशील है।[2] जब आत्मा इस अपरिवर्तनशील की ओर अभिमुख होजाती है, तब सांसारिक गतिविधि उससे छूट जाती है और वह आत्मा अपने अपरिवर्तनशील नित्य अस्तित्व में पहुँच जाती है। ये दोनों परस्पर ऐसे विरोधी नहीं हैं, जिनमें कि मेल हो ही न सकता हो, क्योंकि ब्रह्म एक और अनेक दोनों ही हैं, वह नित्य ही अजन्मा है और साथ ही विश्व के रूप में प्रवहमान भी है। गीता की दृष्टि में यह गतिमय जगत् भगवान् की सृष्टि है। ब्रह्म इस संसार को अपना लेता है और इसमें कर्म करता है; वर्त एवं च कर्माणि। विश्व के उद्देश्य की दृष्टि से भगवान् ईश्वर है, पुरुषोत्तम, सारे संसार का स्वामी, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है।[3]परम आत्मा: सर्वोच्च आत्मा। आत्मा में विद्यमान ईश्वर।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्म से तुलना कीजिए, जो महाभारत में कृष्ण के विषय में कहता है: वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाप्यअधिकं तथा।
- ↑ तुलना कीजिए, अमरकोश: एकरूपतया तु यः कालव्यापी स कूटस्थः।
- ↑ अव्यय; सर्वज्ञत्वेन ईश्वरधर्मेण, अल्पज्ञत्वेन जीवधर्मेण वा, न व्येति क्षीयते वर्धते वेत्यर्थः। -नीलकण्ठ।
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