भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-15
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष 6.न तद्धासयते सूर्या न शशांको न पावकः। उसे न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। वह मेरा परम धाम है, जहाँ पहुचकर फिर वापस नहीं लौटना होता ।तुलना कीजिए; कठोपनिषद् 5, 15; मुण्डकोपनिषद् 2, 2-10।इस श्लोक में अपरिवर्तनशील ब्रह्म की ओर संकेत किया गया है, जिसे तपस्या के अभ्यास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 7.ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मेरा अपना ही एक अंश नित्य जीव बनकर जीवन के संसार में पांच इन्द्रियों को और उनके साथ छठे मन को, जो कि प्रकृति में स्थित हैं, अपनी ओर खींच लेता है।ममैवांश:: मेरा अपना ही एक अंश। इसका यह अर्थ नहीं है कि भगवान् को टुकड़ों में विभक्त या खाण्डित किया जा सकता है। व्यष्टि भगवान की एक गति है, एक महान् जीवन का केन्द्र। आत्मा वह नाभिक है, जो अपने-आप को विस्तारित कर सकती है और हृदय और मन द्वारा, एक घनिष्ठ संयोग द्वारा, सारे संसार को आत्मसात् कर सकती है। वास्तविक अभिव्यक्तियां, सम्भव है कि, आंशिक हों, परन्तु व्यष्टि आत्मा की वास्तविकता ब्रह्म है, जो मानवीय प्रकट-रूप में पूरी तरह सामने नहीं आता। मनुष्य में विद्यमान परमात्मा की मूर्ति स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य बना एक सेतु है। विश्व में प्रत्येक व्यष्टि का शाश्वत महत्त्व है। जब वह अपनी सीमितताओं से ऊपर उठ जाती है, तब वह अतिव्यक्तिक (सुपरर्सनल) परब्रह्म में विलीन नहीं हो जाती, अपितु भगवान् [1] में निवास करती रहती है और विश्व की गतिविधि में परमात्मा की एक हिस्सेदार बन जाती है। 8.शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:। जब ईश्वर शरीर धारण करता है और जब वह शरीर को छोड़ता है, तब वह इन (इन्द्रियों और मन) को साथ ले जाता है, जैसे कि वायु सुगन्धों को उनके स्थानों से ले जाती है। विश्व अस्तित्व में जब आत्मा भटकती रहती है, तब सूक्ष्म शरीर उसके साथ रहता है। 9.श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। वह कान, आंख, स्पर्श की इन्द्रिय, स्वाद की इन्द्रिय और नासिका तथा मन का उपयोग करता हुआ इन्द्रियों के विषयों का आनन्द लेता है। 10.उत्क्रामंन्तं स्थितं वापि भुज्जानं वा गुणान्वितमू्। जब वह शरीर को छोड़ता है या उसमें रहता है या गुणों के सम्पर्क में आकर उपभोग करता है, उस समय मूढ़ लोग (अन्तर्वासी आत्मा को) नहीं देख पाते। परन्तु जिनके ज्ञान की आंख है (या ज्ञान जिनकी आंख है), वे उसे देख पाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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