भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 225

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-14
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   
12.लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥

हे भरतों में में श्रेष्ठ (अर्जुन), जब रजोगुण बढ़ जाता है, तब लोभ, गतिविधि, कार्यों का प्रारम्भ, अशान्ति और वस्तुओं की लालसा- ये सब उत्पन्न हो जाते हैं; रजोगुण की प्रधानता से जीवन और उसके सुखों को पाने के लिए ओवशपूर्ण प्रयत्न उत्पन्न होता है।

13.अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥

हे कुरुनन्दन (अर्जुन), जब तमोगुण बढ़ जाता है, तब प्रकाश का अभाव, निष्क्रियता, लापरवाही और केवल मूढ़ता, ये सब उत्पन्न होते हैं। जहाँ प्रकाश सत्त्व-गुण का परिणाम है, वहाँ अप्रकाश या प्रभाव का अभाव तमोगुण का फल है। गलती, गलतफहमी, लापरवाही और निष्क्रियता, ये तामसिक स्वभाव के विशेष चिह्नृ हैं।

14.यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तम विदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥

जब देहधारी आत्मा उस दशा में विलय को प्राप्त होती है, जबकि सत्त्वगुण प्रधान हो, त बवह सर्वोच्च (भगवान्) को जानने वालों के विशुद्ध लोकों में पहुँचती है।वे मुक्ति नहीं पाते, अपितु ब्रह्मलोक में जन्म लेते हैं। मुक्ति की दशा निस्त्रैगुण्य अर्थात् त्रिगुणातीतता है।

15.रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते॥

जब रजोगुण प्रधान हो, उस समय विलय को प्राप्त होने पर वह कर्मों में आसक्त लोगों के बीच जन्म लेती है; और यदि उसका विलय तब हो, जबकि तमोगुण प्रधान हो, तब वह मूढ़ योनियों में जन्म लेती है।

16.कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥

अच्छे (सात्त्विक) कर्म का फल सात्त्विक और निर्मल कहा जाता है; राजसिक कर्म का फल दुःख होता है और तामसिक कर्म का फल अज्ञान होता है।

17.सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसोऽज्ञानमेव च॥

सत्त्व-गुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुण से प्रमाद, मूढ़ता और अज्ञान उत्पन्न होता है।यहाँ तीनों गुणों के मनोवैज्ञानिक परिणाम बताए गए हैं।

18.ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥

जो लोग सत्त्व-गुण में स्थित होते हैं, वे ऊपर की ओर उठते जाते हैं; रजोगुण वाले लोग मध्य के क्षेत्र में रहते हैं और तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग जघन्य कर्मों में लगे रहकर नीचे की ओर गिरते जाते हैं। आत्मा का विकास तीन सोपानों में होता है; यह निष्क्रिय जड़ता और अज्ञान की अधीनता से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की खोज की ओर बढ़ती है। परन्तु जब तक हम आसक्त रहते हैं, भले ही वह आसक्ति श्रेष्ठ वस्तुओं के प्रति क्यों न हो, हम सीमित रहते हैं और इसलिए सदा एक असुरक्षा की भावना बनी रहती है, क्योंकि रजस् और तमस् हमारे अन्दर विद्यमान सत्त्व पर हावी हो जा सकते हैं। सर्वोच्च आदर्श नैतिक, से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचना है। अच्छे (सात्त्विक) मनुष्य को सन्त (त्रिगुणातीत) बनना चाहिए। जब तक हम इस स्थिति तक न पहुँच जाएं, तब तक हम केवल निर्माण की दशा में हैं; हमारा विकास अपूर्ण है।

19.नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्चति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्धावं सोऽधिगच्छति॥

जब देखने वाला (द्रष्टा) इन गुणों के अलावा अन्य किसी कर्ता को नहीं देखता और उसको भी जान लेता है जो कि इन गुणों से परे है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।’’तब ब्रह्म के साथ उसकी तद्रूपता व्यक्त हो जाती है।’’ - आनन्दगिरि।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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