भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 221

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   
28.समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥

क्योंकि वह ईश्वर को सब जगह समान रूप से विद्यमान देखता है, इसलिए वह अपने आत्म द्वारा अपनी सच्ची आत्मा को चोट नहीं पहुँचाता; और तब तक सर्वोच्च लक्ष्य (परम गति) को प्राप्त कर लेता है।

29.प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥

जो व्यक्ति इस बात को देख लेता है कि सब कर्म केवल प्रकृति द्वारा किए जा रहे हैं साथ ही यह कि आत्मा कर्म करने वाली नहीं है, वही वस्तुतः देखता है।सच्ची आत्मा कर्म करने वाली (कर्ता) नहीं है, अपितु केवल साक्षी है। वह दर्शक है, अभिनेता नहीं। शंकराचार्य का कथन है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि जो अकर्ता, अव्यय और सब गुणों से रहित है, उसमें किसी प्रकार की विविध-रूपता हो सकती है, वैसे ही, जैसे कि आकाश में किसी प्रकार की विविध-रूपता नहीं होती।[1]कर्म मप और बुद्धि पर प्रभाव डालते हैं, आत्मा पर नहीं।

30.यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥

जब वह इस बात को देख लेता है कि सब वस्तुओं की पृथकता की दशा उस एक में ही केन्द्रित है और उसमें से ही यह सारा विस्तार होता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। जब प्रकृति की विविधता और उसके विकास का मूल उस शाश्वत एक में ढूंढ़ लिया जाता है, तब हम भी शाश्वता को प्राप्त कर लेते हैं। ’’वह आत्मा की सर्वव्यापी प्रकृति को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि सब प्रकार की सीमितताओं का कारण आत्मा की एकता में विलीन जाता है।’’ - आनन्दगिरि।

31.अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥

क्योंकि परमात्मा अनश्वर है, अनादि है और निर्गुण है, इसलिए हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन) यद्यपि वह शरीर में निवास करता है, फिर भी वह न तो कोई कर्म करता है और न उसमें लिप्त होता है।

32.यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥

जिस प्रकार सर्वव्यापी आकाश अपनी सूक्ष्यमता के कारण किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सब शरीरों में स्थित आत्मा भी किसी प्रकार लिप्त नहीं होती।

33.यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥

जैसे एक सूर्य इस सारे संसार को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार हे भारत (अर्जुन), क्षेत्र का स्वामी (क्षेत्री) इस सारे क्षेत्र को प्रकाशित करता है। क्षेत्रज्ञ सारे क्षेत्र को, अस्तित्वमानता के सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है।

34.क्षेत्रज्ञेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥

जो लोग अपने ज्ञान- चक्षुओं से इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को और सब प्राणियों के प्रकृति से मुक्त हो जाने को जान लेते हैं, वे सर्वोच्च (भगवान्) को पा लेते हैं। भूतप्रकृति: वस्तुओं और प्राणियों का भौतिक स्वभाव। इति ... क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः। यह है ’क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद का योग’ नामक तेरहवां अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्षेत्रज्ञमकर्तारं सर्वोपाधिविवर्जितम्। निर्गुणस्याकर्तुर्निवशेषस्याकाशस्येव भेदे प्रमाणानुपपत्तिः।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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