भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 212

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-12
व्यक्तिक भगवान् की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है
भक्ति और ध्यान

   
विभिन्न मार्ग
6.ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥

परन्तु जो लोग अपने सब कर्मों को मुझमें समर्पित करके, मुझमें ध्यान लगाए हुए, अनन्य भक्ति से ध्यान करते हुए मेरी पूजा करते हैं;

7.तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥

जो अपने विचारों को मुझ पर केन्द्रित करते हैं, हे अर्जुन, मैं इस मृत्यु द्वारा सीमित संसाररूपी समुद्र से उनका शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ।परमात्मा उद्धार करने वाला, रक्षक है। जब हम अपने हृदय और मन को उसकी ओर लगा देते हैं, तो वह हमें मृत्यु के समुद्र से ऊपर उठा लेता है और हमें शाश्वत (अमरता) में स्थान प्रदान करता है। जिसकी प्रकृति वैराग्य या संन्यास की ओर नहीं है, उसके लिए भक्ति का मार्ग अधिक उपयुक्त है। भागवत में कहा गया है: ’’भक्ति का मार्ग उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त है, जो संसार से न तो बहुत ऊबा है और न संसार में बहुत आसक्त है।’’[1]यह हमारे स्वभाव पर आधारित है कि हम प्रवृत्ति-धर्म, कर्ममार्ग, को अपनाएं या निवृत्ति-धर्म, संन्यास के मार्ग, को।

8.मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यति मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥

तू अपने मन को मुझमें लगा। अपनी बुद्धि को मेरी ओर लगा। उसके बाद तू केवल मुझमें ही निवास करता रहेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

9.अथ चित्तं समाधातं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥

हे धनंजय (अर्जुन), यदि तू अपने चित्त को स्थिरतापूर्वक मुझमें लगाने में असमर्थ है, तब तू अभ्यासयोग द्वारा (चित्त को एकाग्र करने के द्वारा) मुझ तक पहुँचने का यत्न कर। यदि यह आध्यात्मिक दशा स्वतः उत्पन्न नहीं हो जाती, तो हमें एकाग्रीकरण का अभ्यास करना चाहिए, जिससे हम आत्मा को स्थिरतापूर्वक परमात्मा को ओर ले जाने के उपर्युक्त बन सके। इस अभ्यास द्वारा भगवान् शनैः-शनैः हमारे स्वभाव पर अधिकार कर लेता है।

10.अभ्यासेऽप्यसमर्थोसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धमवाप्स्यसि॥

यदि तू अभ्यास द्वारा भी मुझे प्राप्त करने में असमर्थ है, तब तू मेरी सेवा को अपना परम लक्ष्य बना ले; मेरे लिए कर्म करता हुआ भी तू सिद्धि (पूर्णता) को प्राप्त कर लेगा।यदि मन की बहिर्मुख प्रवृत्तियों के कारण अथवा अपनी परिस्थितियों के कारण एकाग्रीकरण का अभ्यास भी कठिन जान पड़े, तब सब कर्म परमात्माके लिए करने चाहिए। इस प्रकार व्यक्ति को शाश्वत वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। कई बार ’मत्कर्म’ का अर्थ परमात्मा की सेवा, पूजा, फूल और फल चढ़ाना, धूप जलाना, मन्दिर बनवाना और वेद-शास्त्रों का अध्ययन करना इत्यादि लगया जाता है।[2]

11.अथैतदप्यशक्तोअसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्॥

यदि तू इतना भी करने में असमर्थ है, तब तू मेरी अनुशासित गतिविध (योग) की शरण ले और अपने-आप को वश में करके सब कर्मों के फल की इच्छा को त्याग दे। मद्योगम्आश्रितः: मेरी आश्चर्यजनक शक्ति में शरण लेकर। - श्रीधर।यदि आप अपने सब कर्म भगवान् को समर्पित नहीं कर सकते, तब फलों की इच्छा रखे बिना कर्म कीजिए। कामनाहीन कर्म, निष्काम कर्म, के योग को अपना लीजिए। हम सारे व्यक्तिगत प्रयत्नों का त्याग कर सकते हैं, अपने-आप को पूरी तरह एकमात्र परमात्मा की रक्षक शक्ति के भरोसे छोड़ सकते हैं, फल के सब विचारों को त्यागकर आत्म-अनुशासन और कर्म में लग सकते हैं। मनुष्य को भगवान् के हाथों में एक बच्चे जैसा बन जाना चाहिए।

12.श्रेयचोहिज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥

ज्ञान निश्चित रूप से (एकाग्रीकरण के) अभ्यास से अधिक अच्छा है; ध्यान ज्ञान से अच्छा है; फल का त्याग ध्यान से भी अच्छा है; त्याग से तुरन्त शान्ति प्राप्त हो जाती है। श्रीधर ने ’ज्ञान’ की व्याख्या आवेश या आत्मा को परमात्मा की ओर प्रेरित करने के रूप में, और ध्यान, की व्याख्या परमात्मा से भरे होने के रूप में, भगवन्मयत्वम् के रूप में की है और यह आत्मा पर स्वयं भगवान् के पूर्ण अधिकार द्वारा पूरा होता है। ’सूर्यगीता’ से तुलना कीजिए: ’’भक्ति ज्ञान से अच्छी है और लालसाहीन कर्म भक्ति से अच्छा है। जो कोई वेदान्त के इस सिद्धान्त को समझ लेता है, उसे ही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य समझना चाहिए।’’ [3]भक्ति, ध्यान और एकाग्रीतरण का अभ्यास, ये सब कर्म के फलों के त्याग की अपेक्षा अधिक कठिन हैं। कर्म के फल का त्याग अशान्ति को जन्म देता है, जो कि आध्यात्मिक जीवन का असली आधार है। भक्ति पर जोर देने का परिणाम यह होता है कि ज्ञान गौण हो जाता है और मन श्रद्धालु और उपासनायुक्त हो जाता है और सब कर्म परमात्मा को समर्पित करने के कारण पवित्र हो जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगाअस्य सिद्धिदः। 11, 20, 7
  2. अभिनवगुप्त ’मत्कर्माणि’ को ’भगवत्कर्माणि’ - जैसे पूजा, जन, स्वाध्याय, होम इत्यादि- का समानार्थक मानता है।
  3. ज्ञानादुपास्तिरुकृष्टा, कर्मेत्कृष्टमुपासनात्। इति यो वेद वेदान्तैः स एव पुरुषोत्तमः॥- 114, 77

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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