भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 211

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-12
व्यक्तिक भगवान् की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है
भक्ति और ध्यान

   

अर्जुन उवाच
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1.एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥

अर्जुन ने कहाः इस प्रकार सदा निष्ठापूर्वक जो भक्त तेरी पूजा करते हैं और दूसरी ओर जो लोग अनश्वर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, इन दोनों में से योग का ज्ञान किसको अधिक है?कुछ लोग ऐसे हैं, जो एक और अव्यक्तिक और संसार से असम्बन्धित ब्रह्म के साथ एकाकार होने की साधना करते हैं और अन्य कुछ लोग ऐसे हैं, जो मुनष्यों और प्रकृति के जगत् में व्यक्त व्यक्तिक परमात्मा के साथ एक होने की साधना करते हैं। इनमें से योग का ज्ञान किसको अधिक है? क्या हमें सब व्यक्त रूपों की ओर से मुंह मोड़ लेना होगा और अपरिवर्तनशील अव्यक्त को पाने के लिए यत्न करना होगा, या हमें व्यक्त रूप की भक्ति करनी होगी और उसकी सेवा के रूप में कर्म करना होगा? क्या हमें परम की या व्यक्तिक परमात्मा की, ब्रह्म की या ईश्वर की उपासना करनी है?

श्रीभगवानुवाच

2.मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते में युक्ततमा मताः॥

श्री भगवान् ने कहाः जो लोग अपने मन को मुझमें स्थिर करके, सदा निष्ठापूर्वक और परम श्रद्धा के साथ मेरी पूजा करते हैं, मैं उनहें योग में सबसे अधिक पूर्ण समझता हूँ।गुरु पक्का निश्चायक उत्तर देता है कि जो लोग परमात्मा की उसके व्यक्त रूप में पूजा करते हैं, उन्हें योग का अधिक अच्छा ज्ञान है।

उपासना का अर्थ है पूजा।[1]

वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥

किन्तु जो लोग अनश्वर, अनिर्वचनीय, अव्यक्त, सब जगह विद्यमान, अचिन्तनीय, अपरिवर्तनशील (कूटस्थ), गतिरहित (अचल) और निरन्तर एक-सा रहने वाले (ध्रुव) की उपासना करते हैं;

4.सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥

वे सब इन्द्रियों को वश में करके, सब दशाओं में समानचित रहते हुए, सब प्राणियों के कल्याण में आनन्द अनुभव करते हुए (अन्य लोगों की भाँति ही) मुझको ही प्राप्त होते हैं।सन्नियम्य: संयम में रहते हुए। यहाँ हमसे इन्द्रियों को वश में रखने को कहा गया है, उनका पूर्णतया वर्जन करने को नहीं।सर्वभूतहिते रताः: सब प्राणियों के कल्याण में आन्नद अनुभव करते हुए। जो लोग विश्वात्मा के साथ अपनी एकता को अनुभव कर लेते हैं, वे भी जब तक शरीर धारण किए रहते हैं, संसार के कल्याण के लिए कार्य करते रहते हैं। दखिए 5, 25, जिसमें यह कहा गया है कि मुक्त आत्माएं सब प्राणियों के कल्याण में आनन्द अनुभव करती हैं।यहाँ मानवता की सेवा को योग का एक आवश्यक अंग बताया गया है। महाभारत में यह प्रार्थना की गई हैः ’’मुझे कौन वह पवित्र मार्ग बताएगा, जिससे होकर मैं सब दुःखी हृदयों में प्रवेश पा सकू और उनके कष्ट को इस समय और सदा के लिए अपने ऊपर ले सकूं?’’ तुकाराम से भी तुलना कीजिएः ’’वह मनुश्य सच्चा है जो दुःखियों को छाती से लगाता है; इस प्रकार के मनुष्यों में स्वयं भगवान् अपने महिमाशाली रूप में निवास करता है; ऐसे मनुष्य का हृदय लबालब भरा रहता है करुणा, विनम्रता और प्रेम से; वह सब परित्यक्तों को अपना लेता है।’’[2]

5.क्लेशोअधिकरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्धिरवाप्यते॥

जिनके विचार अव्यक्त की ओर लगे हुए हैं, उनकी कठिनाई कहीं अधिक है, क्योंकि अव्यक्त का लक्ष्य देहधारी प्राणियों द्वारा प्राप्त किया जाना बहुत कठिन है।लेाकातीत परमेश्वर की खोज सजीव ईश्वर की, जो सब वस्तुओं और व्यक्तियों की आत्मा है, पूजा की अपेक्षा अधिक कठिन है। ’अवधूतगीता’ में दत्तात्रेय कहता है: ’’मैं उसे किस प्रकार प्रणाम करूं, जो अरूप है, अभिन्न है, जो आनन्दमय है और अनश्वर है, जिसने प्रत्येक वस्तु को स्वयं अपने द्वारा अपने में ही व्याप्त किया हुआ है।’’[3] अपरिवर्तनशील को मन द्वारा सरलता से ग्रहण नहीं किया जा सकता और यह मार्ग अपेक्षाकृत अधिक दुर्गम है। उसी लक्ष्य तक हम व्यक्तिक ईश्वर की भक्ति के मार्ग द्वारा अपनी सारी शक्तियों को -ज्ञान, संकल्प और अनुभूति को- परमात्मा की ओर मुड़कर अधिक सरल और स्वाभाविक ढंग से पहुँच सकते हैं। तुलना कीजिए: ’’यदि रहस्यवादी योगी ध्यान लगाकर निर्गुण और निष्क्रिय ज्योति के दर्शन करते हैं, वे दर्शन करते रहें। मेरी तो केवल यही लालसा है कि मेरी प्रसन्न आंखों के सम्मुख वह श्याम ही प्रकट रहे, जो यमुना के रेतीले तट पर दौड़ता है।’’[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उपासना का अर्थ है- निरन्तर ध्यान। शंकराचार्य का कथन है: ’’उपासनं नाम यथाशास्त्रम् उपास्यस्य अर्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यम् उपगम्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं यद् आसनम् तद् उपासनम् आचक्षते।’’
  2. एक0के0 गांधी: सौंग्स फ्राम प्रिजन (1934) पृ0 129
  3. येनेदं पूरितं सर्वमात्मनैवात्मनात्मनि। निराकारं कथं वन्दे ह्यभिन्नं शिवमव्ययम्॥ दमिश्क के सेंट जान से तुलना कीजिए: ’’दृश्यमान पक्ष से हमारे विचारों को एक आध्यात्मिक उड़ान की ओर उठना चाहिए और परमात्मा की अदृश्य महिमा की ओर ऊपर उठना चाहिए।’’
  4. ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा तन्निगुणं निष्क्रियं, ज्योतिः किज्जन योगिनो यदि पुनः पश्यन्ति पश्यन्तु ते। अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं, कालिन्दीपुलिनेष यत्किमपि तन्नीलं तमो धावति॥

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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