भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 189

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

हमारी अपनी अपूर्णता और आप की अनुभूति ही हमारे हृदयों में विद्यमान भगवान् के दबाव को प्रकट कर देती है। तुकाराम से तुलना कीजिएः ’’मैं पतियों में भी पतित हूं; तिगना पतित हूँ; परन्तु तू मुझे अपनी शक्ति द्वारा अवश्य ऊंचा उठा। न तो मेरा हृदय पवित्र है और न तेरे चरणों में मेरी श्रद्धा ही स्थिर है। मैं पाप से पैदा हुआ हूँ। मैं इसे कितनी बार कहूं? यह तुका कहता है।’’ फिर: ’’मैं बुद्धि से शून्य हूं, गरजमन्द हूँ और गरजमन्द से भी गया-बीता हूँ। मैं अपने मन को स्थिर नहीं कर सकता; मैं प्रयत्न करके हार गया हूँ; शान्ति और विश्राम मुझसे दूर है; मैंने तुझे पूर्ण श्रद्धा अर्पित की है; मैंने अपना जीवन तेरे चरणों पर रख दिया है; तेरी जैसी इच्छा हो वैसा कर। मुझे केवल तेरा ही आसरा है। हे भगवान्, मुझे तुझ पर विश्वास है। मैं मजबूती से तेरे चरणों में चिपटा हुआ हूँ। तुका कहता है कि मेरे प्रयत्न की देखभाल करना तेरा काम है।’’[1] एक दृष्टान्त में नाकेदार अपने हृदय के अन्तस्तम से प्रार्थना करता है: ’’हे परमात्मा, तू मुझ पापी के प्रति दयालु बन।’’इस श्लोक का यह अर्थ नहीं है कि हमें अपने कर्मों के परिणामों से आसानी से छुटकारा मिल सकता है। हम कारण को अपना कार्य उत्पन्न करने से रोक नहीं सकते। विश्व की व्यवस्था में किसी मनमाने हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जा सकती।
जब कोई पापी अनन्य भक्ति के साथ परमात्मा की ओर अभिमुख होता है, तब एक नया कारण आ उपस्थित होता है। उसका उद्धार उसके पश्चात्ताप की शर्त पर आधारित रहता। जैसा कि हमने देखा है, पश्चात्ताप हृदय का एक सच्चा परिवर्तन होता है और उसमें अतीत के पाप के लिए मनस्ताप या दुःख और उस पाप की भविष्य में पुनरावृत्ति को रोकने का निश्चय सम्मिलित रहता है। जब एक बार इस संकल्प को अपना लिया जाता है, तब निरन्तर का उच्चतर में रूपान्तरण स्थिरतापूर्वक होने लगता है। यदि हम मानवीय प्रयत्न में ही विश्वास रखें, तो उन्नति बहुत कठिन हो सकती है। गलतियों, अपूर्णता और आत्मसंकल्प पर विजय प्राप्त कर पाना कठिन है। परन्तु जब आत्मा अपने अहंकार को त्याग देती है और अपने-आप को भगवान् के प्रति खोल देती है, तब सारा भार भगवान् संभाल लेता है और आत्मा को आध्यात्मिक स्तर तक ऊपर उठा लेता है। तुलसीदास का कथन है: ’’कोयला अपना कालापन केवल तभी त्यागता है, जबकि आग उसके अन्दर तक प्रविष्ट हो जाती है।’’[2] ऐसे कोई पाप नहीं हैं, जिन्हें क्षमा न किया जा सकता हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फ्रेजर और माराथीज: तुकाराम: 1, पृ0 92
  2. गरुड़ पुराण से तुलना कीजिए: भक्तिरष्टविधा ह्येषा यस्तिन् म्लेच्छोअपि वर्तते। स विपे्न्द्रो मुनिः श्रीमान् स यतिः स च पण्डितः॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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