भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 184

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   

परमेश्वर की भक्ति का बहुत बड़ा फल है: अपेक्षाकृत छोटी भक्तियों के छोटे फल हैं

11.अवजानन्ति मां भूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥

मूढ. (अज्ञानी) लोग मानव-शरीर धारण किए हुए मरेी अवहेलना करते हैं, क्योंकि वे मेरी उच्चतर प्रकृति को, सब भूतों (अस्तित्वमान् वस्तुओं) के स्वामी के रूप को नहीं जानते। हम केवल बाह्य मानव-शरीर को देखते हैं और उसके अन्दर विद्यमान ब्रह्म को नहीं देखते। हम केवल बाह्य आकृति को देखते हैं और आन्तरिक वास्तविकता को नहीं देखते। परमात्मा को उसके पार्थिव छदवेश में पहचानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता होती है। यदि हम अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को , तात्विक प्रकृति की सीमाओं से ऊपर उठकर, शाश्वत ब्रह्म की ओर न मोड़ दें और उस महत्तर चेतना को प्राप्त कर लें, जिसके द्वारा हम ब्रह्म में निवास कर सकें, तो हम सीमित आकर्षणों के शिकार बने रहेंगे।मूर्ति-पूजा ब्रह्म तक पहुँचने के साधन के रूप में काम में लाई जाती है; अन्यथा यह सदोष है। भागवत में भगवान् के मुंह से कहलवाया गया हैः ’’मैं सब प्राणियों में उनकी आत्मा के रूप में विद्यमान हूं, परन्तु मनुष्य मेरी उस उपस्थिति की अवहेलना करके मूर्ति-पूजा का दिखावा करता है।’’[1]

12.मोघाशा मोघर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥

वे लोग असुरों और राक्षसों के मोहक स्वभाव को धारण करते हैं। उनकी महत्त्वाकांक्षाएं व्यर्थ रहती हैं, उनके कर्म व्यर्थ रहते हैं, उनका ज्ञान व्यर्थ रहता है और वे विवेकाहीन हो जाते हैं। राक्षसीम्: राक्षसों की-सी; जो लोग तमोगुण के वश में हैं और जो क्रूरता के कर्म करते हैं आसुरीम्: असुरों की-सी; जो रजोगुण के वश में हैं और जो महत्त्वकांक्षा, लोभ तथा इसी प्रकार की अन्य प्रवृत्तियों के वशीभूत हैं। - श्रीधर।वे क्षणिक रूपों वाले इस संसार से चिपटे रहते हैं और मोहिनी प्रकृति के शिकार बनते हैं। और उनके नीचे निहित वास्तविकता (ब्रह्म) की उपेक्षा करते हैं।

13.महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥

हे पार्थ (अर्जुन), वे महान् आत्मा वाले लोग, जो दिव्य प्रकृति में निवास करते हैं, मुझे सब अस्तिमान् वस्तुओं का अनश्वर मूल समझकर अनन्य चित्त से मेरी उपासना करते हैं। छलपूर्ण स्वभाव (मोहिनी प्रकृति) का दिव्य स्वभाव (दैवी प्रकृति) से वैषम्य दिखाया गया है। यदि हम आसुरी प्रकृति के हैं, तो हम अपनी पृथक् अहं की चेतना में रहते हैं और उसे अपनी गतिविधियों का केन्द्र बना लेते हैं और संसार के निष्फल चक्र में फंसे रहते हैं और अपनी वास्तविक भवितव्यता को गवां बैठते हैं। दूसरी ओर यदि हम दिव्य प्रकृति के हैं, तो हम सच्ची आत्मानुभूति के प्रति अपने-आप को खोल देते हैं। हमारी सम्पूर्ण ब्रह्म की ओर मुड़ जाती है और हमारा सारा जीवन भगवान् की एक अविराम उपासना बन जाता है। ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने और जीवन में उसको अनुभव करने का प्रयत्न सफल होता है और हम एक समर्पण की भावना से कर्म करने लगते हैं।

14.सततं कीर्तयन्तो मां यतन्श्च दृढ़व्रताः।
नमस्यन्तश्य मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

सदा मेरा गुणगान करते हुए, यत्न करते हुए और अपने व्रतों पर स्थिर रहते हुए, भक्ति के साथ मुझे प्रणाम करते हुए और सदा योग में लगे हुए वे मेरी पूजा करते हैं। ज्ञात्वा (13) भक्त्या ... नित्ययुक्ताः। इन शब्दों से सूचित होता है कि सर्वोच्च सिद्धि किस प्रकार ज्ञान, भक्ति और कर्म का सम्मिश्रण है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा। तमवज्ञाय मां मत्र्यः कुरुते अर्चाविडम्बनम्॥ - 3, 29, 2

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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