भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 182

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   
4.मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥

इस सारे संसार को मैंने अपने अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त किया हुआ है। सब प्राणी मुझमें निवास करते हैं, किन्तु मैं उनमें निवास नहीं करतां देखिए 7, 12। सम्पूर्ण विश्व का अस्तित्व लोकातीत परमेश्वर के कारण है और फिर भी इस संसार के रूप उस परमेश्वर को पूरी तरह न तो अपने अन्दर रखते हैं और न उसे अभिव्यक्ति करते हैं। उसकी परम वास्तविकता देशकालीन वस्तुओं की प्रतीति से बहुत ऊपर है।

5.न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

और (फिर भी) सब भूतों (अस्तित्वमान् वस्तुओं) का निवास मुझमें नहीं है; मेरे इस दिव्य रहस्य को देख। मेरी आत्मा जो सब भूतों का मूल है, वह सब भूतों को संभाले तो हुए है, किन्तु वह उनमें निवास नहीं करती। योगम् ऐश्वरम्: दिव्य रहस्य। परम ईश्वर से, सीमित तत्त्व रूप में दिखाई पड़ने वाले विश्व के आविर्भाव की व्याख्या ब्रह्म की शक्ति द्वारा की गई है। भगवान् सब तत्त्वों का मूल है, परन्तु वह उनके द्वारा अस्पृष्ट रहता है। यह दिव्य शक्ति का योग है। यद्यपि वह सब सत्तावान् वस्तुओं को उत्पन्न करता है, फिर भी वह परमात्मा उनसे इतना ऊपर है कि हम यह भी नहीं कह सकते कि वह उनमें निवास करता है। यदि बिलकुल ठीक-ठाक कहा जाए, तो परमात्मा की अन्तर्यामिता का विचार भी ऐसा है कि जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता। सब अस्तित्व उसकी दो प्रकार की प्रकृति के कारण हैं। परन्तु क्यों कि उसकी अपनी उच्चतर प्रकृति आत्मा है, जो कि प्रकृति के कार्य से असम्बन्धित है, इसलिए यह भी सत्य है कि सब भूत अर्थात् वस्तुएं उनमें निवास नहीं करतीं और न वह उनमें निवास करता है। वे एक ही हैं, फिर भी पृथक् हैं।’’जीव या शरीरी आत्मा शरीर को धारण करता हुआ और उसे संभालता हुआ अहंकार या आत्मबुद्धि द्वारा उससे चिपटा रहता है। किन्तु जीव के विपरीत मैं यद्यपि सब भूतों को धारण करता हूँ और संभालता हूं, फिर भी मैं उनमें निवास नहीं करता, क्योंकि मैं अहंकार या आत्मबुद्धि से मुक्त हूं’’- श्रीधर। गीता संसार को अस्वीकार नहीं करती, जो कि परमात्मा के कारण विद्यमान है और जिसके पीछे, ऊपर और आगे परमात्मा है। संसार परमात्मा के कारण विद्यमान है, जो परमात्मा संसार के बिना भी अपने-आप में उससे कम नहीं रहेगा, जो कि वह वस्तुतः है। परमात्मा के विपरीत, संसार का अपना विशिष्ट अस्तित्व उसके अपने अन्दर नहीं है, इसलिए इसका अस्तित्व केवल सीमित है और परम नहीं। यहाँ गुरु का झुकाव सर्वेश्वरवाद(पैनथीइज्म) की ओर नहीं है, जिसका कथन है कि प्रत्येक वस्तु परमात्मा है, अपितु ईशावास्यवाद (पैनैन्थीइज्म) की ओर है, जो इस बात का सूचक है कि प्रत्येक वस्तु परमात्मा के अन्दर विद्यमान है। विश्व की प्रक्रिया परम ब्रह्म का पूर्व-प्रकटन नहीं है। कोई भी सीमित प्रक्रिया परम ब्रह्म को अन्तिम रूप से और पूरी तरह से अभिव्यक्ति नहीं कर सकती, हालांकि यह संसार परमात्मा का सजीव प्रकटन है।

6.यथाकाशस्थितो नित्यं वायु सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥

जिस प्रकार सब ओर चलती हुई प्रचण्ड हवा सदा आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार तू समझ ले कि सब भूत (विद्यमान वस्तुएं) मुझमें निवास करते हैं। आकाश उन सबको अपने अन्दर रखता है, परन्तु वह उनसे छुआ नहीं रहता। यहाँ गुरु एक उपमा होता है। आकाश सचमुच सार्वभौम, सर्वव्यापी असीम पृष्ठभूमि है, जिसमें वायु -तत्त्व रहता है। परन्तु आकाश का स्वभाव स्थिर और अपरिवर्तनशील है। उसी प्रकार असीम परमात्मा भी एक है, अनेक नहीं। यद्यपि वह अपरिवर्तनशील सत्ता है, फिर भी यह सब गतिशील सत्ताओं का सहारा है। यह गतिशील इकाइयों में से किसी एक में भी निहित नहीं है, जो सबकी सब अन्ततोगत्वा परमात्मा पर निर्भर हैं। और फिर भी परमात्मा अनेक को संभाले हुए है। वायु आकाश में रहती है, परन्तु यह आकाश से नहीं बनी हुई और मूलतः आकाश के साथ उनमें कोई समानता नहीं है। केवल एक ऐसे अर्थ में ही हम कह सकते हैं कि वस्तुएं परमात्मा के अन्दर विद्यमान है। परमात्मा की पूर्ण लोकातीतता, जिसे बाद में मध्व ने विकसित किया, यहाँ स्पष्ट सामने आती है। रामानुज के मत में भी विश्व ब्रह्म का प्रकटन है; परन्तु इस श्लोक में कहा गया है कि परमात्मा सब वस्तुओं को अस्तित्व तो प्रदान करता है, किन्तु वह उनके अन्दर विद्यमान नहीं रहता। वस्तुओं का अस्तित्व परमात्मा की अद्भुत शक्ति के कारण है। परमात्मा संसार से इतना ऊपर उठा हुआ है कि वह सांसारिक अस्तित्वों से पृथक् है और वह उनसे इतना प्रतिकूल है कि उसे ’पूर्णतया अन्य’ समझना होगा। यह एक गम्भीर धार्मिक अन्तर्ज्ञान की अभिव्यक्ति है।

7.सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥

हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), कल्प (चक्र) की समाप्ति पर सब भूत (अस्तित्मान् वस्तुएं) उस प्रकृति में समा जाते हैं, जो मेरी अपनी है और अगले कल्प (चक्र) के आरम्भ में मैं उन्हें फिर बाहर निकाल देता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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