भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 179

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-8
विश्व के विकास का क्रम अर्जुन प्रश्न करता है

   
18.अव्यक्ताद्वद्धक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥

दिन के आने पर अव्यक्त से सब वस्तुएं प्रकट हो जाती हैं और रात्रि के आने पर वे सब वस्तुएं फिर उसी अव्यक्त कही जाने वाली वस्तु में विलीन हो जाती हैं। यहाँ अव्यक्त का अभिप्राय प्रकृति से है।

19.भूतग्रामः स एवायं भूत्वा प्रलीयते।
राज्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥

हे पार्थ (अर्जुन), यह वही बार-बार उत्पन्न होने वाला अस्तित्वमान् वस्तुओं का समूह बिलकुल बेबस-सा रात्रि के आगमन पर विलीन हो जाता है और दिन के आगमन पर फिर अपने अस्तित्व में प्रकट हो जाता है। सब अस्तित्वमान् वस्तुओं (भूतों) का समय-समय पर होने वाला आविर्भाव और विलय सब वस्तुओं के स्वामी को प्रभावित नहीं करता।

20.परस्तस्मात्तु भावोअन्योक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥

परन्तु इस अव्यक्त से भी परे एक और अव्यक्त सनातन अस्तित्व है, जो सब अस्तित्वमान् वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता। यह ऊर्ध्वेलौकिक (लोकोत्तर) अव्यक्त है, जो सब प्रकार के परिवर्तनों में भी अपरिवर्तशील और नित्य है। कई बार अव्यक्त के दो प्रकारों में अन्तर किया जाता है; एक तो वह अव्यक्त, जिसमें वे सब प्राणी प्रवेश करते हैं,जिनका उद्धार नहीं हुआ, और एक लोकोत्तर अव्यक्त, जिसे ’शुद्धतत्त्व’ कहा जाता है और जिसे साधारण मन अनुभव ही नहीं कर सकता, और जिसमें वे आत्माएं प्रवेश करती हैं, जिनका उद्धार हो चुका है। दिन और रात्रि की अविराम लयबद्ध गति उन सब लौकिक भूतों पर होती है, जो शाश्वत नहीं हैं। लौकिक प्रक्रिया से परे भगवान् है, अव्यक्त ब्रह्म, जो सर्वाच्च लक्ष्य है। जो उसे प्राप्त कर लेते हैं, वे दिन और रात के परे पहुँच जाते हैं।

21.अव्यक्तोअक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥

यह अव्यक्त अनश्वर कहलाता है। उसे सर्वोच्च स्थिति कहा गया है। जो उसे प्राप्त कर लेते हैं, वे वापस नहीं लौटते। वही मेरा परम धाम (निवास-स्थान) है। हम जन्म और मरण के या विश्व की अभिव्यक्ति (प्रभव) और अनभिव्यक्ति (प्रलय) के चक्र से बच जाते हैं। उस अनिर्वचनीय ब्रह्म के धाम तक पहुचंने के लिए, जिसका कि धाम लौकि अभिव्यक्ति से परे है, हमें अपने समूचे व्यक्तित्व को भगवान् को अर्पित कर देना होगा। शाश्वत अव्यकत की लोकोत्तर दशा भी भक्ति या उपासना द्वारा प्राप्त की जा सकती है। उस ब्रह्म के साथ अपनी सम्पूर्ण चेतन सत्ता के संयोग द्वारा हम पूर्ण निष्पत्ति तक पहुँच जाते हैं। व्यक्तिक परमात्मा, ईश्वर का परम धाम परब्रह्म है। साथ ही देखिए, 8, 2।

22.पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वन्यया।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वभिदं ततम्॥

हे पार्थ (अर्जुन), वह परम पुरुष, जिसमें सब भूत निवास करते हैं, और जिससे यह संसार व्याप्त है, अनन्य भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

दो मार्ग़

23.यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥

हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), अब मैं तुझे वह समय बताता हूं, जिसमें इस संसार से प्रयाण करने वाले योगी फिर वापस नहीं लौटते और वह समय भी बताता हूं, जिससे प्रयाण करने वाले फिर वापस लौट आते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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