भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है इन सबमें से ज्ञानी व्यक्ति, जो सदा ब्रह्म के साथ संयुक्त रहता है और जिसकी भक्ति अनन्य होती है, सर्वश्रेष्ठ है। उसे मैं बहुत अधिक प्रिय हूँ और वह मुझे बहुत अधिक प्रिय है।जब तक हम जिज्ञासु या साधक होते हैं, तब तक ही हम द्वैत के संसार में रहते हैं; परन्तु जब हमें ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब कोई द्वेत नहीं रहता। मुनि अपने-आप को उस एकात्मा के साथ संयुक्त कर देता है, जो सबमें है। 18.उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । यों तो ये सभी बहुत अच्छे हैं, परन्तु ज्ञानी को तो मैं समझता हूँ कि वह मैं ही हूं; क्यों कि पूरी तरह अपने-आप को योग में लगाकर वह केवल मुझमें ही स्थित हो जाता है, जो कि मैं सर्वोच्च लक्ष्य हूँ। उदारः सर्व एवैते: यों तो सभी बहुत अच्छे हैं। हम मानसिक कष्ट से बचने के लिए (आर्तः), व्यावहारिक लाभ प्राप्त करने के लिए (ज्ञानी) प्रार्थना करते हैं। ये सबके सब बहुत अच्छे हैं। यदि हम भौतिक वस्तुओं के लिए भी प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना को एक औपचारिक दिनचर्या के रूप में बदल लेते हैं, या उसका उपयोग सौभाग्य लाने वाले जादू के रूप में करते हैं, तो भी हम धार्मिक भावना की वास्तविकता को मान रहे होते हैं। प्रार्थना मनुष्य का परमात्मा तक पहुँचने के लिए प्रयत्न है। इसमें यह मान लिया जाता है कि संसार में कोई ऐसी व्यापक शक्ति है, जो हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देती है। यदि हम कोई वस्तु मांगेंगे, तो वह हमें दे दी जाएगी। प्रार्थना के प्रयोग द्वारा हम अपनी चेतना में एक ऐसी ज्योति जगाते हैं, जो हमारे मूर्खतापूर्ण दम्भ, हमारे स्वार्थपूर्ण लोभ, हमारे भयों और आशाओं को स्पष्ट दिखा देती है। यह एक अखण्ड व्यक्तित्व, शरीर, मन और आत्मा की समस्वरता का निर्माण करने का साधन है। धीरे-धीरे हम अनुभव कर लेते हैं कि जीवन में सौभाग्य के लिए या परीक्षा में सफलता के लिए प्रार्थना करना अपने-आप को नीचा गिराने वाला काम है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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