भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है 13.त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । प्रकृति के इन तीन गुणों द्वारा भ्रम में पड़कर सारा संसार मुझे नहीं पहचान पाता, जो कि मैं इन सबसे ऊपर हूँ और अनश्वर हूँ। शंकराचार्य का कथन है कि भगवान् यहाँ इस बात पर खेद प्रकट करता है कि संसार उस परम ईश्वर को नहीं जानता, जो स्वभाव से ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है; जो सब प्राणियों की आत्मा है और सब गुणों से रहित है। जिसे जानने से संसार की बुराई का बीज ही जलकर राख हो जाता है। [1]हम परिवर्तित होते हुए रूपों को तो देखते हैं, किन्तु उस नित्य सत्ता को नहीं देख पाते, जिसकी कि ये रूप अभिव्यक्ति हैं। हम प्लेटो के गुफावासियों की भाँति दीवारों पर हिलती-डुलती छायाओं को तो देखते हैं, परन्तु हमें उस प्रकाश को भी देखना होगा, जिसके कारण ये छायाएं बनती हैं। 14. दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मेरी इस गुणमय दैवी माया को जीत पाना बहुत कठिन है। परन्तु जो लोग मेरी ही शरण में आते हैं, वे इसको पार कर जाते हैं। दैवी : दिव्य। आधिदैविक [2] या परमेश्वर से सम्बन्ध रखने वाली। [3] मायाम् एतां तरन्ति : [4] इस माया के पार पहुँच जाते हैं। वे माया के संसार के पार पहुँच जाते हैं, जो कि भ्रम का मूल है। रामानुज यह अर्थ निकालता है कि माया वह है, जो विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करने में समर्थ है। बुरे काम करने वालों की दशा 15.न मां दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यन्ते नराधमाः । बुरे काम करने वाले, जो मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में नीच हैं (नराधम), जिनकी बुद्धि भ्रम के कारण बहक गई है और जो आसुरी स्वभाव के हैं, वे मेरी शरण में नहीं आते।बुरे कर्म करने वाले भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते, क्यों कि उनके मन और संकल्प भगवान् के उपकरण नहीं, अपितु अहंकार के उपकरण हैं। वे अपने अपरिष्कृत मनोवेगों को वश में करने का यत्न नहीं करते, अपतिु वे अपने अन्दर विद्यमान रजोगुण और तमोगुण के शिकार हैं। यदि हम अपने विद्यमान सत्त्वगुण द्वारा रजोगुण और तमोगुण पर नियन्त्रण कर लें, तो हमारा कर्म सुव्यवस्थित और प्रबुद्ध बन जाता है और वह वासना और अज्ञान का परिणाम नहीं रहता। तीनों गुणों के परे पहुँचने के लिए हमें पहले सत्त्वगुण की प्रधानता स्थापित करनी होगी। हम आध्यात्मिक बन सकें, इससे पहले हमें नैतिक बनना होगा। आध्यात्मिक स्तर पर हम द्वैत को पार कर जाते हैं और अपने अन्दर बुद्धिमान् आत्मा के प्रकाश और बल द्वारा कार्य करते हैं। उस दशा में हम किसी निजी स्वार्थ को प्राप्त करने के लिए या किसी निजी कष्ट से बचने के लिए कार्य नहीं करते, अपितु केवल ब्रह्म के उपकरण के रूप में कर्म करते रहते हैं। 16.चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), जो धर्मात्मा व्यक्ति मेरी पूरा करते हैं, वे चार प्रकार के लोग हैं। एक तो वे, जो विपत्ति में फंसे हैं; दूसरे जिज्ञासु, तीसरे धन प्राप्त करने के इच्छुक और चौथे ज्ञानी। सुकृतिन: : धर्मात्मा लोग। वे लोग, जिनका अपने पूर्वजन्म के धर्मपूर्ण आचरण के कारण उच्चतर जीवन की ओर रुझान है।[5] एक श्रेणी तो उन आर्त लोगों की है, जो कष्ट में पड़े हुए हैं; जिन्होंने नुकसान उठाया है। जो लोग धन पाने के इच्छुक हैं, धनकाम (शंकराचार्य), जो अपनी भौतिक स्थिति को सुधारना चाहते हैं, वे दूसरी श्रेणी मे आते हैं। तीसरे समूह में वे भक्त और सीधे-सच्चे लोग हैं, जो सत्य को जानना चाहते हैं। चैथी श्रेणी उन ज्ञानियों की है, जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया है। रामानुज ने ज्ञान का अर्थ केवल एक के प्रति भक्ति, एकभक्ति किया है।महाभारत में चार प्रकार के भक्तों का उल्लेख है, जिनमें से तीन फलकामा; या फल पाने के अभिलाषी होते हैं, जबकि सर्वात्तम भक्त वे है, जो एक ही देवता की अनन्य भाव से पूजा करते हैं।[6] अन्य भक्त तो अन्य फलों की कामना करते हैं, परन्तु मुनि न कोई वस्तु मांगता है और न किसी वस्तु को अस्वीकार करता है। वह अपने-आप को पूर्णतया ब्रह्म को समर्पित कर देता है और जो कुछ उसे दिया जाए, उसे स्वीकार लेता है। उसकी मनोवृत्ति केवल परमात्मा के लिए, अपने-आप को विस्मृत करके परमात्मा की उपयोगिता निरपेक्ष पूजा करने की रहती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एवम्भूतमपि परमेश्वरं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वभूतात्मानं, निर्गुणं, संसारदोषबीजप्रदाहकारणं, मां, नाभिजानाति जगद् इत्यनुक्रोशं दर्शयति भगवान
- ↑ अलैकिकी अत्यद्भुतेति। - श्रीधर।
- ↑ देवस्य जीवरूपेण लीलया क्रीडतो मम सम्बन्धिनीयं दैवी। - नीलकण्ठ।
- ↑ मायां सर्वभूतमोहिनीं तरन्ति, संसारबन्धान्मुच्यन्ते। - शंकराचार्य।
- ↑ पूर्वजनमसु ये कृतपुण्या जनाः। -श्रीधर।
- ↑ चतुर्विधा मम जना भक्ता एवं हि मे श्रुतम्। तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठा ये चैव नान्यदेवताः॥ - शान्तिपर्व, 34।, 33
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