भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 166

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-6
सच्चा योग

  
43.तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

वहाँ वह अपने (ब्रह्म के साथ संयोग के) उन (मानसिक) संस्कारों को फिर प्राप्त कर लेता है, जिन्हें उसने अपने पूर्वजन्म में विकसित किया था और यहाँ से (इसे प्रारम्भ-बिन्दु मानकर) हे कुरुनन्दन (अर्जुन), वह फिर पूर्णता पाने का प्रयत्न करता है।सिद्धि के मार्ग पर प्रगति बहुत धीमी होती है और हो सकता है कि मनुष्य को लक्ष्य तक पहुँचने से पहले अनेक जन्मों में इसके लिए प्रयत्न करना पड़े। परन्तु इस दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न नष्ट नहीं होता। हम जो सम्बन्ध बना लेते हैं और जिन शक्तियों को प्राप्त कर लेते हैं, वे मृत्यु के समय नष्ट नहीं हो जातीं। आगे होने वाले विकास के लिए वे प्रारम्भ -बिन्दु बन जाती है।

44.पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्नियते ह्यवशोअपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥

वह अपने इस पहले अभ्यास के द्वारा विवश-सा होकर आगे ले जाया जाता है। योग का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर जिज्ञासु भी वैदिक नियमों के परे पहुँच जाता है। शब्दब्रह्म : वैदिक नियम। इसका संकेत वेदों और उनके द्वारा निश्चित किए गए विधि-विधानों की ओर है। वैदिक नियमों का पालन करने के द्वारा हमें उनसे परे पहुँचने में सहायता मिलती है। तुलना कीजिए: ’’ब्रह्म दो प्रकार का है; एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा उससे परे विद्यमान ब्रह्म (परब्रह्म)। जब कोई व्यक्ति शब्दब्रह्म में निष्णात हो जाता है, तब वह उससे परे विद्यमान ब्रह्म तक पहुँच जाता है। ’’[1]तब विश्वास का अन्त अनुभव में हो जाता है, वाणी मूक हो जाती है और सिद्धान्त मन्द पड़ते हुए विलीन हो जाते हैं। सामान्यतया धर्म के लिए प्रेरणा धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन द्वारा या किसी सम्प्रदाय में दीक्षित होने द्वारा प्राप्त होती है। यह तब तक सहायक होती है, जब तक कि स्वतः स्फूर्ति इतनी अधिक और इतनी पूर्ण न हो जाए कि किसी अन्य परोक्ष सहायता की आवश्यकता न रहे। साधारणतया वेद का अध्ययन द्रुतकारी प्रभाव डालता हजै। परन्तु जब एक बार हमें ऐसा उद्बोधन प्राप्त हो जाता है, जो अपने-आप में पर्याप्त होता है, तब हमें किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं रहती और तब हम शब्दब्रह्म या किसी संस्थात्मक संदर्शन से परे पहुँच जाते हैं। जिस आदमी को नदी पार करनी होती है, उसे नाव की आवश्यकता होती है। परन्तु ’’जो व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँच चुका है, उसे उस लक्ष्य तक पहुँचने के साधन-रूप विधि-विधानों का आश्रय नहीं लेना चाहिए।’’ मज्झिमनिकाय, 1, 135। रामानुज ने शब्द ब्रह्म का अर्थ प्रकृति कि‍या है।

45.प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥

परन्तु जो योगी सब पापों से शुद्ध होकर, जन्म -जन्मान्तरों में अपने-आप को पूर्ण बनाता हुआ अध्यवसायपूर्वक यत्न करता रहता है, वह परम गति को प्राप्त होता है (सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुँच जाता है) भले ही वह जीवन में अपनी दुर्बलताओं के कारण लक्ष्य तक पहुँचने में सफल न हो पाए, फिर भी उनका प्रयत्न मृत्यु के बाद भी उसके साथ रहेगा और दूसरे जन्मों में प्रगति में उसकी तब तक सहायता करता रहेगा, जब तक वह अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाए। परमात्मा का प्रयोजन तब तक पूरा नहीं होगा, जब तक कि सब मानव-प्राणियों का क्षमा, पश्चात्ताप और स्वास्थ्यदायक अनुशासन द्वारा उद्धार न हो जाए और वे फिर भगवान् के साथ संयोग की स्थिति में न पहुँच जाएं। प्रत्येक आत्मा को फिर उसी परमात्मा तक पहुँचाना होगा, जिसने उसे अपने ही रूप में सिरजा है। परमात्मा का परम अन्ततोगत्वा बडे़-से-बडे़ विद्रोही तत्त्वों को भी अपने साथ फिर समस्वर कर लेगा। गीता हमें सबके उद्धार के विषय में एक आशापूर्ण भरोसा दिलाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैत्री उपनिषद् 6, 22। साथ ही विष्णुपुराण से भी तुलना कीजिए: शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति। 6, 5

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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