भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 164

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-6
सच्चा योग

  

अर्जुन उवाच

33.योअयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चच्चलत्वास्थितिं स्थिराम्॥

मधुसूदन (कृष्णा), तूने जो समानता (मन की समता) के स्वभाव वाला वह योग बताया है, उसके लिए, चंचलता के कारण, मुझे कोई स्थिर आधार दिखाई नहीं पड़ता।

34.चच्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

हे कृष्ण, मन बहुत ही चंचल है। यह बहुत ही प्रचण्ड, बलवान् और हठी है। मुझे तो लगता है कि इसको वश में करना वायु को वश में करने की भाँति बहुत ही कठिन है।

श्रीभगवानुवाच

35.असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

श्री भगवान् ने कहाःहे महाबाहु (अर्जुन), निस्सन्देह मन को वश में करना बहुत कठिन है और यह बहुत चंचल है, फिर भी हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), इसे निरन्तर अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में किया जा सकता है।तुलना कीजिए, योगसूत्र, 1, 12। अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। गुरु यहाँ बतलाता है कि चंचल मन को यह अभ्यास पड़ा होता है कि वह अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य करता जाए, परन्तु उसे वैराग्य [1] और अभ्यास द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है।अर्जुन इस बात को अनुभव करता है कि मानव-स्वभाव में बहुत अधिक दुराग्रह और हिंसा, उच्छृंखलता और स्वार्थ-संकल्प है। हमारा रुझान अपने स्वभाव के दोषों की ओर से आंखें भींच लेने तथा प्रकाश के प्रति अपने हृदयों को कठोर कर लेने की ओर होता है। जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है तपस्या।

36.असंयतात्मना योगो दुष्प्राय इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योअवाप्तुमुपायतः॥

मैं इस बात से सहमत हूँ कि उसके लिए योग को प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है, जिसने अपने-आप को संयत नहीं किया है। परन्तु संयत व्यक्ति इसे दृढ़-संकल्प तथा समुचित उपायों द्वारा प्राप्त कर सकता है। अर्जुन पूछता है कि जो आत्मा योग का प्रयत्न करती है और असफल रहती है, उसका क्या होता है।पराजय अस्थायी है: जो भलीभाँति प्रारम्भ करता है, वह लक्ष्य तक पहुँच जाता है।

अर्जुन उवाच

37.अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्रात्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥

अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण, जो व्यक्ति श्रद्धावान् होते हुए भी चंचल मन वाला होने के कारण अपने-आप को वश में नहीं कर पाता है और योग में सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता, उसकी क्या दशा होती है? अर्जुन का प्रश्न उन लोगों के भविष्य के सम्बन्ध में है, जो मृत्यु के समय शाश्वत अच्छाई के विरुद्ध युद्ध नहीं कर रहे होते, हालांकि वे इतने अनुशासित नहीं होते कि वे शाश्वत पवित्रता की छटा का चिन्तन कर सकें। क्या, जैसा कि कुछ लोगों, का विश्वास है, उनके लिए अनन्त स्वर्ग या अनन्त नरक, ये ही दो विकल्प हैं? या इस प्रकार के व्यक्तियों के लिए मृत्यु के बाद भी पूर्णता की ओर बढ़ पाने का फिर कोई अवसर है?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जब लेटने के लिए धरती है, तब बिस्तरों के लिए चिन्तित होने की क्या आवश्यकता? जब अपनी बाहं सुलभ है, तब तकियों की आवश्यकता किसलिए? जब अपनी हथेली है ही, तब थालियों और पात्रों की क्या आवश्यकता? वायुमण्डल, वृक्षों की छाल इत्यादि के होते हुए शाल-दुशालों की क्या आवश्यकता है? सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः, बाहौ सुसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम्। सत्याज्जलो किं पुरुधन्नपात्रैः; दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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