भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 155

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-6
सच्चा योग

  
9.सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥

जो व्यक्ति मित्रों, साथियों और शत्रुओं में, तटस्थों और निष्पक्षों में, द्वेष रखने वालों और सम्बन्धियों में, सन्तों में और पापियों में एक-सा भाव रहता है, उसे अधिक अच्छा माना जाता है। एक पाठ-भेद है-’विशिष्यते’ के स्थान पर ’विमुच्यते’। गीता पर शंकराचार्य की टीका। इस योग को कैसे प्राप्त किया जाए?शरीर और मन की सतत जागरूकता आवश्यक है

10.योगी युज्जीत सततमात्मांन रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥

योगी को चाहिए कि वह एकान्त में अकेला बैठकर अपने-आप को वश में रखते हुए, सब इच्छाओं से मुक्त होकर और किसी भी परिग्रह (धन-सम्पत्ति या साज-सामान) की कामना न करते हुए अपने मन को (परमात्मा में) एकाग्र करे। यहाँ पर गुरु ने पतंजलि के योगसूत्र की पद्धति पर मन को अनुशासन में रखने की विधि का विकास किया है। इसका मुख्य प्रयोजन हमारी चेतना को उसकी साधारण जागृतावस्था से उच्चतर स्तर तक इतना उठाते जाना है कि वह भगवान् के साथ संयुक्त हो जाए। साधारणतया मानवीय मन बहिर्मुख होता है।जीवन के यान्त्रिक और भौतिक पक्षों में तल्लीन रहने के फलस्वरूप चेतना एक विसन्तुलित दशा में पहुँच जाती है। योग चेतना के आन्तरिक संसार की खोज का प्रयत्न करता है और चेतन तथा अवचेतन को संगठित करने में सहायता करता है। हमें अपने मन को ऐन्द्रिय इच्छाओं से शून्य कर देना चाहिए, बाह्म विषयों से अपने ध्यान को हटा लेना चाहिए और उसे उपासना के लक्ष्य में लगा देना चाहिए।[1]देखिए भगवद्गीता, 18, 72 जहाँ गुरु ने अर्जुन से पूछा है कि क्या उसने उसके उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है; एकाग्रेण चेतसा। क्यों कि इसका उद्देश्य दृष्टि की पवित्रता प्राप्त करना है, इसलिए इसके नित्ति मन की सूक्ष्यमता और स्थिरता की आवश्यकता होती है। हमारा वर्तमान विस्तार ही हमारे अस्तित्व की चरमसीमा नहीं है। अपने मन की सब ऊर्जाओं को जगाकर और उन्हें एकाग्र करके हम सम्बन्ध के स्तर को अनुभवगम्य से वास्तविक तक, अवलोकन से दर्शन तक ऊपर उठाते हैं और आत्मा को अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर अधिकार कर लेने देते हैं। बुक आफ प्रावर्ब्जह (कहावतों की पुस्तक) में यह कहा गया है कि ’’मनुष्य की आात्मा परमात्मा की मशाल है।’’ मनुष्य के आन्तरिकतम अस्तित्व में ऐसी कोई वस्तु है, जिसे परमात्मा दीपशिखा के रूप में जला सकता है।
सततम्: निरन्तर। अभ्यास निरन्तर किया जाना चाहिए। कभी-कभी बीच-बीच में योगाभ्यास करने लगने का कोई लाभ नहीं है। उच्चतर और तीव्रतर प्रकार की चेतना विकसित करने के लिए एक अविराम सृजनात्मक प्रयत्न की आवश्यकता है।
रहसि: एकान्त में। साधक को कोई ऐसा शान्त स्थान चुनना चाहिए, जहाँ की प्राकृतिक वातावरण शान्तिदायक हो; जैसे नदी का किनारा या पर्वत का शिखर, जो हमारे हृदय और मन को ऊंचा उठाए। इस संसार में, जो दिनोदिन अधिकाधिक कोलाहलपूर्ण होता जा रहा है, सभ्य मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह विचारपूर्ण शान्ति के लिए कुछ थोडे़-से क्षण निकाले। तुलना कीजिएः ’’जब तू प्रार्थना करने लगे, तब अपनी कोठरी में घुस जा और दरवाजा बन्द कर ले।’’[2] हमें एकान्त स्थान में चले जाना चाहिए ओर बाह्य विक्षेपकारी वस्तुओं को दूर कर देना चाहिए। ओरिगैन द्वारा लिखित आदि-तपस्वियों के वर्णन से तुलना कीजिए: ’’वे मरुभूमि में निवास करते थे, जहाँ वायु अधिक शुद्ध थी, आकाश अधिक खुला था और परमात्मा अधिक निकट था।’एकाकी: अकेला। गुरु इस बात पर आग्रह करता है कि उस हल्के-से दबाव को अनुभव करने के लिए, उस शान्त स्वर को सुनने के लिए साधक को अकेला होना चाहिए।
यतचित्तात्मा: आत्मवशी। उसे उत्तेजित, परेशान या चिन्तित नहीं होना चाहिए। परमात्मा के सम्मुख शान्त रहना सीखने का अर्थ है- नियन्त्रण और अनुशासन का जीवन। शंकराचार्य और श्रीधर के मतानुसार यहाँ ’आत्मा’ शब्द का प्रयोग देह या शरीर के अर्थ में किया गया है। अपने दैनिक कागज-पत्रों या व्यवसाय की पत्रावलियों को साथ लेकर उपासना की कोठरी में घुसने का कोई लाभ नहीं है। यदि हम उनके कागज-पत्रों को बाहर छोड़ जाएं और दरवाजों और खिड़कियों को बन्द कर लें, तब भी हो सकता है कि हम अपनी चिन्ताओं और परेशानियों को बन्द कर लें, तब भी हो सकता है कि हम अपनी चिन्ताओं और परेशानियों के कारण अशान्त रहें। वहाँ किसी प्रकार की अशान्ति या क्षोभ नहीं होना चाहिए। विचारों द्वारा हम बुद्धि को प्रभावित करते हैं; मौन द्वारा हम अस्तित्व की गहराइयों वाली तहों को स्पर्श करते हैं। यदि हृदय में परमात्मा को दर्शन और ज्ञान केवल पवित्र हृदय द्वारा ही होता है। हमें गम्भीर निस्तब्धता में बैठ जाना चाहिए और प्रकाश की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ’’अपने पिता (परमात्मा) के साथ, जो कि एकान्त में है, आलाप करो।’’ परमात्मा की सजीव विद्यमानता मौन में प्रत्येक आत्मा में उसकी क्षमता और आवश्यकता के अनुसार प्रकट होती है।[3]


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह वह स्थिति है जिसे बाएहमी ने ’कल्पना के चक्र को रोक देना और आत्मचिन्तन से विरत हो जाना’ कहा है।
  2. मैथ्यू 6, 6
  3. .वड्र्सवर्थ के इस वक्तव्य से तुलना कीजिए कि ’’कविता का जन्म प्रशान्तता में अनुस्मरण किए गए मनोवगों से होता है।’’ रिल्के ने अपने ’लैटर्स टू ए यंग पोइट’ में कहा है: ’’मैं तुम्हें इसके सिवाय कोई और सलाह नहीं दे सकता कि तुम अपने अन्दर ही वापस लौट आओ और उन गहराइयों की छानबीन करो, जिनसे तुम्हारा जीवन उद्भुत हुआ है।’’

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः