भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-6
सच्चा योग जिसने अपनी (निम्नतर) आत्मा को अपनी (उच्चतर) आत्मा से जीत लिया है, उसकी आत्मा मित्र होती है। परन्तु जिसने अपनी (उच्चतर) आत्मा को पा नहीं लिया है, उसकी आत्मा ही शत्रु के समान शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती है। हमसे कहा गया है कि हम अपनी उच्चतर आत्मा द्वारा निम्नतर आत्मा को वश में करें। यहाँ प्रकृति के नियतिवाद को प्रकृति का नियन्त्रण करने की शक्ति द्वारा परिमित कर दिया गया है। निम्नतर आत्मा का नाश नहीं किया जाना है। यदि उसे वश में रखा जाए, तो उसका उपयोग सहायक के रूप में किया जा सकता है। 7.जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। जब मनुष्य अपनी (निम्नतर) आत्मा को जीत लेता है और आत्म-प्रभुत्व की शान्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसकी सर्वोच्च आत्मा सदा समाधि में स्थित रहती है; वह सर्दी और गर्मी में, सुख और दुःख में, मान और अपमान में शान्त रहती है। यह उस व्यक्ति के परम आनन्द की दशा है, जिसने सार्वभौम आत्मा के साथ अपनी एकता स्थापित कर ली है। वह जितात्मा है, जिसकी कि शान्ति और धृति द्वन्द्वों के कष्टों से विक्षुब्ध नहीं होती। 8.ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । जिस योगी की आत्मा ज्ञान और विज्ञान द्वारा तृप्त हो गई है और जो कूटस्थ (अपरिवर्तनशील) है और जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है,जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर या स्वर्ण-खण्ड एक जैसे हैं, उसे योगयुक्त कहा जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साक्षाद् आत्मभावेन वर्तते।
- ↑ महाभारत से तुलना कीजिए:आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्ययुक्तः संयुक्तः प्रकृतेर्गुणैः। तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ - शान्तिपर्व, 187, 24
- ↑ समाहितः आत्मनिष्ठः भवति
- ↑ सम्-आ-हित। तुलना कीजिए: समाधिः जितात्मनः निर्विकारचित्तस्य आत्मा, चित्तं परम् उत्कर्षेण समाहितः समाधिं प्राप्तः भवति।
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