भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 154

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-6
सच्चा योग

  
6.बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥

जिसने अपनी (निम्नतर) आत्मा को अपनी (उच्चतर) आत्मा से जीत लिया है, उसकी आत्मा मित्र होती है। परन्तु जिसने अपनी (उच्चतर) आत्मा को पा नहीं लिया है, उसकी आत्मा ही शत्रु के समान शत्रुतापूर्ण व्यवहार करती है। हमसे कहा गया है कि हम अपनी उच्चतर आत्मा द्वारा निम्नतर आत्मा को वश में करें। यहाँ प्रकृति के नियतिवाद को प्रकृति का नियन्त्रण करने की शक्ति द्वारा परिमित कर दिया गया है। निम्नतर आत्मा का नाश नहीं किया जाना है। यदि उसे वश में रखा जाए, तो उसका उपयोग सहायक के रूप में किया जा सकता है।

7.जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥

जब मनुष्य अपनी (निम्नतर) आत्मा को जीत लेता है और आत्म-प्रभुत्व की शान्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसकी सर्वोच्च आत्मा सदा समाधि में स्थित रहती है; वह सर्दी और गर्मी में, सुख और दुःख में, मान और अपमान में शान्त रहती है। यह उस व्यक्ति के परम आनन्द की दशा है, जिसने सार्वभौम आत्मा के साथ अपनी एकता स्थापित कर ली है। वह जितात्मा है, जिसकी कि शान्ति और धृति द्वन्द्वों के कष्टों से विक्षुब्ध नहीं होती।
परमात्मा समाहितः शंकराचार्य का कथन है कि सर्वाच्च आत्मा अपने-आप को स्वयं अपनी ही आत्मा समझने लगती है।[1] शरीर में विद्यमान आत्मा सामान्यतया संसार के द्वन्द्वों में, सर्दी और गर्मी में, दुखः और सुख मे मग्न रहती है; परन्तु जब यह इन्द्रियों को वश में कर लेती है और संसार पर काबू पा लेती है, तब आत्मा स्वतन्त्र हो जाती है। सर्वोच्च आत्मा शरीर में विद्यमान आत्मा से भिन्न नहीं है। जब आत्मा प्रकृति के गुणों से बंधी रहती है, तब वह क्षेत्रज्ञ कहलाती है; जब वह उनके बन्धन से छूट जाती है, तब वही आत्मा परमात्मा कहलाने लगती है।[2] यह निश्चित ही अद्वैत वेदान्त का मत है जो लोग इस मत के विरोधी हैं, वे परमात्मा शब्द को ’परम्’ और ’आत्मा’ इन दो शब्दों में विभक्त कर लेते हैं और ’परम्’ को समाहितः’ क्रिया का क्रिया-विशेषण मानते हैं। रामानुज ’परम्’ को क्रिया-विशेषण मानता है और उसके अनुसार अर्थ है कि आत्मा को आत्मा को अति भव्य रूप में प्राप्त किया जाता है। श्रीधर का कथन है कि इस प्रकार का व्यक्ति अपनी आत्मा में समाधिमग्न हो जाता है।[3] आनन्दगिरि का मत है कि इस प्रकार के व्यक्ति की आत्मा पूरी तरह समाधि में लीन हो जाती है।[4]
सम् आहित: समानता की ओर दृढ़तापूर्वक प्रेरित। परन्तु यह व्याख्या साधारणतया की जाने वाली व्याख्या नहीं है।

8.ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाणञ्चनः॥

जिस योगी की आत्मा ज्ञान और विज्ञान द्वारा तृप्त हो गई है और जो कूटस्थ (अपरिवर्तनशील) है और जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है,जिसके लिए मिट्टी का ढेला, पत्थर या स्वर्ण-खण्ड एक जैसे हैं, उसे योगयुक्त कहा जाता है।
ज्ञानविज्ञान: 3, 41 टिप्पणी देखिए। कूटस्थ: इसका शब्दार्थ है ऊंचे स्थान पर बैठा हुआ, अवचिल, परिवर्तनहीन दृढ़, स्थिर या प्रशान्त।योगी को युक्त या योगमग्न तब कहा जाता है, जब वह संसार के परिवर्तनों से ऊपर भगवान् में ध्यान लगाए हुए हो। इस प्रकार का योगी प्रतीतियों के पीछे विद्यमान वास्तविकता (ब्रह्म) के ज्ञान और अनुभव से तृप्त हुआ रहता है। वह संसार की वस्तुओं और घटनाओं से अक्षुब्ध रहता है। और इसीलिए इस परिवर्तनशील संसार की घटनाओं के प्रति समचित कहा जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साक्षाद् आत्मभावेन वर्तते।
  2. महाभारत से तुलना कीजिए:आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्ययुक्तः संयुक्तः प्रकृतेर्गुणैः। तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ - शान्तिपर्व, 187, 24
  3. समाहितः आत्मनिष्ठः भवति
  4. सम्-आ-हित। तुलना कीजिए: समाधिः जितात्मनः निर्विकारचित्तस्य आत्मा, चित्तं परम् उत्कर्षेण समाहितः समाधिं प्राप्तः भवति।

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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