भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 146

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास

  
10.ब्रह्मण्याधाय कर्माणिसंग त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा ॥

जो व्यक्ति आसक्ति को त्यागकर अपने कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करके कर्म करता है, उसे पाप उसी प्रकार स्पर्श नहीं करता, जैसे कमल का पत्ता पानी से (अछूता ही रहता है)। गीता हमसे कर्मों का त्याग करने को नहीं कहती, अपितु उन्हें भगवान् के प्रति, जो कि एकमात्र अमरता है, समर्पित करके उन्हें करते रहने को कहती है। जब हम सीमित अंहकार के प्रति अपने राग को और उसकी रुचियों और अरुचियों को त्याग देते हैं और अपने कर्मों को शाश्वत ब्रह्म के प्रति समर्पित कर देते हैं, तब हमें सच्चा संन्यास प्राप्त हो जाता है, जो संसार में स्वच्छन्द गतिविधियों के साथ संगत है। इस प्रकार का संन्यासी अपने क्षणिक सीमित आत्म के लिए कार्य नहीं करता, अपितु उस आत्मा के लिए कार्य करता है, जो हम सबमें विद्यमान है। [1] ब्रह्मण्याधाय कर्माणि। रामानुज ब्रह्म को प्रकृति का पर्याय मानता है।

11.कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्वक्त्वात्मशुद्धये ॥

योगी लोग (कर्मयोगी) आसक्ति को त्यागकर आत्मा की शुद्धि के लिए केवल शरीर, मन, बुद्धि या केवल इन्द्रियों द्वारा कार्य करते हैं।

12.युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्टिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निवध्यते ॥

कर्म योग में लगी हुई (या श्रद्धालु) आत्मा कर्म के फलों में आसक्ति को त्यागकर दृढ़ आधार वाली शान्ति को प्राप्त करती है, परन्तु जिनकी आत्मा ब्रह्म के साथ एक नहीं हुई है, वे इच्छा द्वारा प्रेरित रहते हैं और (कर्म के) फल में उनकी आसक्ति रहती है और (इसलिए) वे बन्धन में पड़े रहते हैं। युक्ता : : अर्थात् कर्म के विधान में लगे हुए। शान्तिम् : जब परमात्मा की शान्ति हमारे ऊपर आती है, तब ब्रह्मज्ञान हमारे अस्तित्व को उस प्रकाश से भर देता है, जो बोध प्रदान करता है और हमें रूपान्तरित कर देता है और पहले जो कुछ अन्धकारमय और अस्पष्ट था, उस सबको स्पष्ट कर देता है।

प्रबुद्ध आत्मा

13.सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वंशो।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥

शरीरधारी (आत्मा), जिसने मन द्वारा (आन्तरिक रूप से) सब कर्मों का त्याग करके अपनी प्रकृति को वश में कर लिया है, न कोई कर्म करता हुआ और न कोई कर्म करवाता हुआ नौ द्वारों वाले नगर में सुख से निवास करता है।कठोपनिषद् से तुलना कीजिए, 5,1। नौ द्वार ये हैं: दो आंखें, दो कान, दो नथुने, मुंह और मलमूत्र- विसर्जन तथा प्रजनन की दो इन्द्रियां। देखिए श्वेताश्वर उपनिषद्, 3,18।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इमर्सन से तुलना कीजिएः ’’ओ धैर्यशाली तारो, मुझे भी अपना स्वभाव सिखा दो, तुम जो प्रत्येक रात्रि में इस प्राचीन आकाश में चढ़ते हो। और आकाश पर न कोई छाया छोड़ते हो, न कोई निशान, न आयु का कोई चिह्न और न मृत्यु का कोई भय ।’’

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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