भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 14

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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4.सर्वोच्च वास्तविकता

परमात्मा उस आदर्श योजना और उस सुनिर्दिष्ट माध्यम, दोनों का ही बनाने वाला है, जिनके द्वारा आदर्श वास्तविक बनता है, धारणात्मक वस्तु विश्व बन जाता है। धारणात्मक (काल्पनिक) योजना को सुनिर्दिष्ट रूप देने के लिए एक परिपूर्ण अस्तित्व की, क्षमताशील भौतिक माध्यम में वस्तुओं का रूप ढ़ाल देने की आवश्यकता होती है। एक ओर जहाँ परमात्मा के विचार अस्तित्वमान होने के लिए प्रयत्नशील हैं, वहाँ यह अस्तित्वमय संसार पूर्णता तक पहुँचने के लिए भी प्रयत्नशील है। दैवीय योजना और क्षमताशील भौतिक तत्त्व, ये दोनों उस परमात्मा से निकले हैं, जो आदि, मध्य और अन्त, ब्रह्मा, विष्णु और शिव है। अपने सृजनशील विचारों से युक्त परमात्मा ब्रह्मा है। वह परमात्मा, जो अपना प्रेम सब ओर लुटाता है और इतने धैर्य के साथ कार्य करता है कि उस धैर्य की तुलना केवल उसके प्रेम से की जा सकती है, विष्णु है, जो निरन्तर संसार की रक्षा के कार्य में लगा रहता है। जब धारणात्मक वस्तु विश्व बन जाती है, जब स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आता है, तब हमें एक पूर्णता प्राप्त होती है, जिसका प्रतिनिधि शिव है। परमात्मा एक साथ ही ज्ञान, प्रेम और पूर्णता तीनों है। इन तीनों कृत्यों को पृथक-पृथक नहीं किया जा सकता। ब्रह्मा, विष्णु और शिव मूलतः एक हैं, भले ही उनकी कल्पना तीन अलग-अलग रूपों में की गई हो। गीता की रुचि संसार को मुक्ति दिलाने की प्रक्रिया में है, इसलिए विष्णु-पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। कृष्ण भगवान के विष्णु रूप का प्रतिनिधि है।
विष्णु ऋग्वेद का एक अत्यन्त प्रसिद्ध देवता है। वह महान, व्यापक है। विष्णु शब्द विश् धातु से बना है, जिसका अर्थ है - व्याप्त करना। [1] वह आन्तरिक नियामक है, जो सारे संसार को व्याप्त किए हुए है। वह निरन्तर बढ़ती हुई मात्रा में शाश्वत भगवान की स्थिति और गौरव को अपने अन्दर समेटता जाता है। तैत्तिरीय आरण्यक में कहा गया हैः “नारायण की हम पूजा करते हैं; वासुदेव का हम ध्यान करते हैं और इस कार्य में विष्णु हमारी सहायता करे।[2]गीता का उपदेश देने वाल कृष्ण[3]को विष्णु के साथ जो कि सूर्य का प्राचीन देवता है और नारायण के साथ ब्रह्माण्डीय स्वरूप वाला प्राचीन देवता हैऔर देवताओं और मनुष्यों का लक्ष्य या विश्राम स्थल है, एकरूप कर दिया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अमर (कोश) का कथन हैः व्यापके परमेश्वरे। विष्णु का मूल विश् धातु में भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। तैत्तिरीय उपनिषद का कथन हैः "इस संसार को रचने के बाद वह इसमें प्रवेश कर गया।" साथ ही देखिए, पद्मपुराण: भगवान के रूप में विष्णु प्रकृति में प्रवेश कर गया। स एवं भगवान् विष्णुः प्रकृत्याम् आविवेश।
  2. 10, 1, 6। नारायणाय विद् महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्। नारायण कहता हैः “सूर्य की भाँति होने के कारण मैं सारे संसार को किरणों से आच्छादित करता हूँ और मैं सब प्राणियों का धारण करने वाला हूँ और इसीलिए मैं वासुदेव कहलाता हूँ।” महाभारत, 12, 341, 41
  3. कर्षति सर्व कृष्णः। जो सबको अपनी ओर खींचता है या सबमें भक्ति जगाता है, वह कृष्ण है। ‘वेदान्त-रत्न-मंजूषा’ में (पृ. 52) कहा गया है कि कृष्ण का यह नाम इसलिए है, क्योंकि वह अपने भक्तों के पापों को दूर कर देता है, पापं कर्षयति, निर्मूलयति। ‘कृष्ण’ शब्द कृष् धातु से बना है, जिसका अर्थ है खुरचना। क्योंकि वह अपने भक्तों के सब पापों को और बुराई के अन्य स्त्रोतों को खुरच देता है, इसलिए वह कृष्ण कहलाता है। कृष्टेर्विलेखनार्थस्य रूप भक्तजनपापादिदोषकर्षणात् कृष्णः। गीता पर शंकराचार्य की टीका, 6, 34

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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