भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 119

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति

  
30.मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराषीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥

अपने सब कर्मों को मुझमें त्यागकर और अपनी चेतना को आत्मा में स्थिर करके इच्छा और अहंकार से शून्य होकर तू निरुद्वेग होकर युद्ध कर। भगवान् के प्रति, जो सारे ब्राह्मण्ड के अस्तित्व और गतिविधि का अधीश्वर है, आत्मसमर्पण करके हमें कर्म में जुट जाना चाहिए। ’तेरा इच्छा पूर्ण हो,’ सब कार्यां में हमारी यह मनोवृत्ति होनी चाहिए। हमें सब कार्य इस भावना से करना चाहिए कि हम भगवान् के सेवक हैं। [1]देखिए,18, 59-60 और 66।

31.ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मारवाः ।
श्रद्धावन्तोअनसूयन्तो मुच्यन्ते तेअपि कर्मभिः ॥

जो लोग श्रद्धा से युक्त होकर और असूया से रहित होकर मेरे इस उपदेश का निरन्तर पालन करते हैं, वे कर्मां(के बन्धन) से मुक्त हो जाते हैं।

32.ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ।
सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥

परन्तु जो असूया से भरे होने के कारण इस उपेदश का तिरस्कार करते हैं और इसका पालन नहीं करते, समझ लो कि वे सम्पूर्ण ज्ञान के प्रति अन्धे हैं, बेवकूफ हैं और वे नष्ट होकर रहेंगे।

प्रकृति और कर्त्तव्य

33.सदृषं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

ज्ञानी मनुष्य भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुसार आचरण करते हैं। सब प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार काम करते हैं। निग्रह (दमन या रोकथाम) क्या कर सकता है? प्रकृति (स्वभाव) वह मानसिक उपकरण है, जिसके साथ मनुष्य जन्म लेता है। यह पूर्वजन्म के कर्माें का परिणाम होती है। [2]यह अपना कार्य करके रहेगी। शंकराचार्य का विचार है कि परमात्मा भी इसकी क्रिया को नहीं रोक सकता। स्वयं भगवान् का यह आदेश है कि अतीत के कर्मों को अपना स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न करना ही चाहिए। [3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहं कर्तेश्वराय भृत्यवत् करोमीत्यनन्यबुद्ध्या।-शंकराचार्य। ईश्वरप्रेरितोहं करोमीत्यनन्यबुद्ध्या।- नीलकण्ठ। मयि सर्वाणि कर्माणि नाहं कर्तेतिसंन्यस्य स्वतन्त्रः परमेश्वर एव सर्वकर्ता नाहं कश्चिद्रिति निष्चित्य।- अभिवनगुप्त।
  2. प्रकृतिर्नाम पूर्वकृत धर्माधर्मादिसंस्कारो वर्तमानजन्मादावभिव्यक्तः। - शंकराचार्य ।
  3. अहमपि पूर्वकर्मापेक्षयैव तान प्रवर्तयामिति भावः।- नीलकण्ठ।

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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