भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 106

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

इन सन्तों में नीत्शे के अतिमानव और अलैग्जैण्डर के देवत्वधारियों के जैसे गुण पाए जाते हैं। आनन्द, शान्ति,आन्तरिक बल और मुक्ति की चेतना, साहस और उद्देश्य की ऊर्जा, और परमात्मा में एक यथावत् जीवन उनकी विशेषताएं हैं, वे मानवीय विचार से वर्धमान बिन्दु के प्रतीक हैं। वे अपने अस्तित्व, चरित्र और चेतना से ही यह घोषणा करते हैं कि मानवता अपने-आप अपनाई हुई मर्यादाओं से ऊपर उठ सकती है और विकास का ज्वार एक नये उच्च स्तर की ओर आगे बढ़ रहा है। वे हमारे सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करते हैं और हमसे आशा करते हैं कि हम अपने वर्तमान स्वार्थ और भ्रष्टता से ऊपर उठें। ज्ञान मुक्ति का सबसे बड़ा साधन है, परन्तु यह ज्ञान भगवान् की भक्ति और निष्काम कर्म से बिलकुल पृथक् नहीं है। मुनि जब जीवित होता है, तब भी वह ब्रह्म में विश्राम करता है और संसार की अशान्ति से छुटकारा पा जाता है। स्थित-प्रज्ञ मुनि निष्काम सेवा का जीवन व्यतीत करता है।

इति...................सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः।

यह है ’सांख्य योग’ नामक दूसरा अध्याय। प्लेटो से तुलना कीजिए: ’’यदि आत्मा एक शुद्धता की दशा में प्रस्थान करती है और अपने साथ उस किसी अशुद्धता को नहीं ले जाती, जो उसके साथ जीवन-काल में चिपटी रही थी और जिसमें उसने कभी स्वेच्छा से भाग नहीं लिया था, अपितु सदा बचने का यत्न किया था; वह अपने-आप को अपने -आप में समेटकर और शरीर से इस पृथक् होने का अपना उद्देश्य और इच्छा बनाकर’’’तब इस प्रकार तैयार होकर आत्मा दिव्य, अमर और ज्ञानी के उस अदृश्य और लोक की ओर प्रस्थान करती है। ’’ फ्रेडो, अनुभाग 68। आदर्श मनुष्य, ज्ञानी, स्थित-प्रज्ञ, योगारूढ़, गुणातीत या भक्त के वर्णनों में सारवस्तु सबमें एक जैसी है। देखिए 6, 4-32; 10, 9-10; 12, 13-20; 13, 7-11; 14, 21-35; 16,1-3; 18,50-60


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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