भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
परिचय
1.इस ग्रन्थ का महत्त्व
‘भगवद्गीता’ एक दर्शनग्रन्थ कम और एक प्राचीन धर्मग्रन्थ अधिक है। यह कोई गुह्य ग्रन्थ नहीं है, जो विशेष रूप से दीक्षित लोगों के लिये लिखा गया हो और जिसे केवल वे ही समझ सकते हो, अपितु एक लोकप्रिय काव्य है, जो उन लोगों की भी सहायता करता है ‘जो अनेक और परिवर्तनशील वस्तुओं के क्षेत्र में भटकते फिर रहे हैं।’ इस पुस्तक में सब सम्प्रदायों के उन साधकों की महत्त्वाकांक्षाओं को वाणी प्रदान की गई है, जो परमात्मा के नगर की ओर आन्तरिक मार्ग पर चलना चाहते हैं। हम वास्तविकता को उस अधिकतम गहराई पर स्पर्श करते हैं, जहाँ मनुष्य संघर्ष करते हैं, विफल होते हैं और विजय पाते हैं। शताब्दियों तक करोड़ों हिन्दुओं[1] को इस महान ग्रन्थ से शान्ति प्राप्त होती रही है। इसमें संक्षिप्त और मर्मस्पर्शी शब्दों में एक आध्यात्मिक धर्म के उन मूलभूत सिद्धान्तों की स्थापना की गई है, जो दुराधारित तथ्यों, अवैज्ञानिक कट्टर सिद्धान्तो या मनमानी कल्पनाओं पर टिके हुए नहीं हैं। आध्यात्मिक बल के एक लम्बे इतिहास के साथ यह आज भी उन सब लोगों को प्रकाश देने का काम कर रही है, जो इसके विवेक की गम्भीरता से लाभ उठाना चाहते हैं। इसमें एक ऐसे संसार पर ज़ोर दिया गया है जो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत और गम्भीर है, जिसे कि युद्ध और क्रान्तियां स्पर्श कर सकती हैं। आध्यात्मिक जीवन के पुनर्नवीकरण में यह एब सबल रूपनिर्धारक तत्त्व है और इसने संसार के महान धर्मग्रन्थों में अपना एक सुनिश्चित स्थान बना लिया हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता का प्रभाव बहुत अधिक रहा है। यह प्रारम्भिक दिनों में चीन और जापान तक फैला हुआ था और बाद में पश्चिम के देशों में भी फैल गया। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के दो प्रमुख ग्रन्थों, ‘महायानश्रद्धोत्पत्ति’ (महायान में श्रद्धा का जागरण) और ‘सद्धर्मपुण्डरीक’ (सच्चे धर्म का कमल) पर गीता की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव है। यह बता देना मनोरंजक होगा कि ‘जर्मन धर्म’ के अधिकृत भाष्यकार जे० डब्ल्यू० होअर ने, जो संस्कृत का विद्वान था और कुछ वर्ष तक भारत में धर्म प्रचारक का काम करता रहा था, जर्मन धर्म में गीता को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उसने गीता को ‘एक अनश्वर महत्त्व का ग्रन्थ’ बताया है। उसका कथन है कि यह पुस्तक “हमें न केवल गम्भीर अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है, जो सब कालों में और सब प्रकार के धार्मिक जीवन के लिये प्रामाणिक है, अपितु इसमें साथ ही इण्डो-जर्मन धार्मिक इतिहास के एक सबसे महत्त्वपूर्ण दौर का अत्यन्त प्रामाणिक निरूपण भी किया गया है। यह हमें इण्डो-जर्मन धर्म की मूल प्रकृति और उसकी आधारभूत विशेषताओं के सम्बन्ध में भी मार्ग दिखाती है।” वह गीता के केन्द्रीभूत सन्देश को इन शब्दों में प्रस्तुत करता है- “हमसे जीवन के अर्थ को हल करने के लिये नहीं कहा गया, अपितु उस कर्म को खोज निकालने के लिए, जिसकी हमसे अपेक्षा की जाती है, और उस कर्म को करने के लिए और इस प्रकार कर्म द्वारा जीवन की पहेली को सुलझाने के लिए कहा गया है।” (अप्रैल 1940 के हिब्बर्ट जर्नल में पृष्ठ 341 पर उद्धृत।) परन्तु गीता का कर्म का सन्देश जीवन के दर्शन पर आधारित हैः गीता चाहती है कि कर्म में जुटने से पहले हम जीवन के साथ के अर्थ को समझें। यह विचार के गौरव की उपेक्षा करके कर्म (व्यवहार) के प्रति अन्धभक्ति का समर्थन नहीं करती। इसका कर्म का दर्शन इसके आत्मा के दर्शन से निकला है, ब्रह्मविद्यान्तर्गतकर्मयोगशास्त्र। नैतिक कर्म आधिविद्यक अनुभूति से निकला है। शंकराचार्य का कथन है कि गीता का उद्देश्य हमें बन्धन से छूटने का उपाय सिखाना है, केवल कर्म करने की प्रेरणा देना नहीं, शोकमोहादिसंसारकर्मनिवृत्त्यर्थ, गीता शास्त्रम् न प्रवर्तकम्।
- ↑ तुलना कीजिए ऐल्डुअस हक्सलेः “गीता शाश्वत दर्शन के कभी भी रचे गए सबसे स्पष्ट और सबसे सर्वांग-सम्पूर्ण सारांशों में से एक है। इसीलिए न केवल भारतीयों के लिय अपितु सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए इसका इतना स्थायी मूल्य है सम्भवतः भगवद्गीता शाश्वत दर्शन का सबसे अच्छा सुसंगत आध्यात्मिक विवरण है।” स्वामी प्रणवानन्द और क्रिस्टोफ़र इशर्वुड द्वारा लिखित भगवद्गीता की भूमिका (1945)।
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