भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 88

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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उपसंहार

योग की इन प्रक्रियाओं में से प्रत्येक पर अलग-अलग जोर और प्रत्येक को अलग-अलग नाम दिया जा सकता है- जैसे, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, संन्यासयोग, अध्यात्मयोग या भक्तियोग। परन्तु व्यवहार में ये सब परस्पर सम्बद्ध तथा अविलग हैं और इसलिये गीता में इन सबको मिलाकर एक समन्वित रूप में प्रस्तुत किया गया है।

संभव है, इन पृष्ठों के पाठक कहें-गीता का आदर्श अच्छा है, परन्तु वह अव्यवहार्य है; साधारण मनुष्य उसे पूर्ण करने की आशा ही नहीं कर सकते। तब, इस तत्व प्रधान जगती के मनुष्यों के लिये उसका क्या उपयोग?

यह प्रश्न केवल गीता की शिक्षा के सम्बन्ध में ही नहीं, संसार के समस्त महान धर्मों के सम्बन्ध में उठाया जा सकता है। सब धर्मों और सब धर्म ग्रन्थों में ऐसे ही आदर्श प्रतिपादित किये गये हैं, जो इन सूखे व्यावहारिक संसार में पूर्ण नहीं हो सकते। उदाहरण के लिये, कौन कह सकता है कि ईसा को परमेश्वर मानने वाले ईसाई उनके जीवन और शिक्षाओं का सच्चाई के साथ और पूर्णतः अनुसरण कर सकते हैं? यही बात कुरान के और बौद्ध-शिक्षाओं के सम्बन्ध में भी लागू है। फिर भी यह सत्य है कि इनमें से प्रत्येक धर्म ने न केवल महापुरुषों के हृदयों को उद्वेलित किया है और उनकी आत्माओं को बल प्रदान किया है, वरन वह करोड़ों साधारण मर्त्यों का दैनिक पाथेय है, जिसके बिना वे अन्य पशुओं के समान होते।

बाइबिल, कुरान और गीता दीपकों के समान हैं, जिनसे अंधकार में हमारा पथ प्रकाशित होता है। दीपक हाथ में होने पर भी हम अपनी ही छाया मार्ग पर डालते हैं। इसी प्रकार हमारे पास धर्मग्रन्थों की शिक्षा का प्रकाश होने पर भी प्रत्येक आक्रमणकारी लोभ, संशय, भय और कठिनता अपनी काली छाया फैलाती रहती है। और हमारा मार्ग प्रकाश तथा अन्धकार से चित्र-विचित्र हो जाता है। फिर भी दीपक को दृढ़ता से पकड़े हुए बहुत-कुछ कुशलता से चल सकते हैं। यदि हम प्रकाश को बुझ जाने देंगे तो मन में भटक जायेंगे। किसी पुस्तक को प्रमाण रूप स्वीकार करने वाला प्रत्येक व्यक्ति उसके सब आदर्शों पालन नहीं कर सकता, परन्तु यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रयत्न करे तो उन आदर्शों की परिधि में समाज का निर्माण हो जायगा। जब सारा राष्ट्र कतिपय आदर्शों की पूजा करने लगता है तो जीवन में आचार के निश्चित मानदंडों का प्रादुर्भाव होता है, जिनसे मनुष्य पशु बनने से बचते हैं, और एक सूत्र में बंधे रहते हैं। हम पूर्ण नहीं बन सकते, इसलिए अंधकार में मार्ग देखने के लिये दीपक को दृढ़ता से नहीं पकड़ेंगे, यह उचित आपत्ति नहीं हो सकती। धर्म की सहायता से मनुष्य, बहुधा गलतियाँ करते हुए भी मनुष्य के समान रहते हैं क्या शारीरिक आरोग्य के नियमों का भी पूर्ण बनने की सलाह मानकर कोई छोड़ देने का विचार नहीं करता। उल्टे, बुद्धिमान, स्त्री-पुरुष शक्तिभर उनके पालन का प्रयत्न करते और उनसे लाभ उठाते हैं। आत्मा की रक्षा और संभाल के सम्बन्ध में भी यही होना चाहिये।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यावायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥40॥[1]

प्रयत्न के नाश का जैसा इसमें कुछ नहीं है, न साधना में त्रुटि के कारण उल्टे परिणाम का भय ही है। इस धर्म का थोड़ा-सा पालन भी महाभय से बचा लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 2-40

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