भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 83

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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भगवदर्शन

(अध्याय 11-श्लोक 9, 12, 13, 15-18, 38-40, 43,44)

गीता के ग्यारहवें अध्याय में एक चमत्कार का वर्णन है। उसमें अर्जुन ईश्वर के उस सर्वव्यापी स्वरूप के दर्शन करने में समर्थ होता है, जिसके समक्ष अच्छाई और बुराई, सुख और दुःख, प्रकाश और अन्धकार इत्यादि के द्वन्द्व विलीन हो जाते हैं। विश्वव्यापी के इस विराट स्वरूप का दर्शन अर्जुन को चैंधिया देने वाला था और उसने जितना देखा, वह भी दृष्टि के लिये असह्य था। यथार्थ में, अर्जुन को उस अद्वैत विश्व रूप के दर्शन के लिये; जो सापेक्ष और आंशिक रूप के परे है, दिव्य दृष्टि दी गयी थी, इसका अर्थ यह है कि जब योगी पवित्र और समर्पित जीवन, ममत्व-भाव की साधना और ध्यान के द्वारा अपने-आपको विश्व में मिला देता है और समस्त सृष्टि की परम एकता का अनुभव कर लेता है, तब उसका मुमुक्षु आत्मा सर्वव्यापी ईश्वर की एक झलक पा सकता है। संजय, जिसने अंधे महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत का सारा वर्णन सुनाया था, ने अर्जुन के समक्ष प्रकट किये गये विराट रूप का वर्णन किया है। वह परब्रह्म का-उस पूर्ण का ही-स्वरूप था, जो समस्त सृष्टि को व्याप्त किये हैं और जिसमें अच्छाई तथा बुराई, सुन्दर तथा असुन्दर, मधुर तथा भयानक और सुखद तथा दुःखद के द्वन्द्व भी समाये हुए हैं।

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि: ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥9॥[1]

संजय ने कहाः

हे राजन्! ऐसा कहकर महायोगेश्वर हरि ने पार्थ को अपना परम ईश्वरीय रूप दिखाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 11-9

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