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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपातेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । मुझमें निरन्तर तन्मय रहने वाले प्रेमी भक्तों को मैं ज्ञान-योग प्रदान करता हूँ और उससे वे मुझे पाते हैं। तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: । उन पर दया करके उनके हृदय में स्थित मैं ज्ञानरूपी प्रकाशमय दीपक से उनके अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करता हूँ। क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । जिनका मन अव्यक्त में लगा हुआ है, उनका काम बहुत कठिन है, क्यों कि अव्यक्त को देहधारी कठिनता से ही पा सकता है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: । जो अपने सब कर्म मुझे समर्पित करते हैं, मुझ में परायण हैं और एकनिष्ठा से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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