भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 67

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आदर्श-तप-आहार

कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यवासुरनिश्चयान् ॥6॥[1]

वे मूढ़जन शरीर के पंचमहाभूत को और उसके अन्दर निवास करने वाले मुझे भी कष्ट देते हैं। ऐसे लोगों को आसुरी निश्चय वाला जान।

तप कायिक, वाचिक और मानसिक हो सकता है। कायिक तप आर्जव, भक्ति, ब्रह्मचर्य और करुणा से युक्त आचार द्वारा होता है। वाचिक तप सत्यमय, सौम्य और प्रिय वाणी में तथा धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन एवं वाचन में है। मानसिक समत्व और विचारों की पवित्रता उत्पन्न करना मानसिक तप है। तप स्वार्थ के हेतु से रहित होकर और उसे निरपेक्षतः शुभ मानकर करना चाहिये। जब वह लोगों का आदर प्राप्त करने के लिये या दिखावे के उद्देश्य से किया जाता है तब व्यर्थ होता है, और जब दूसरों को हानि पहुचाने के लिये या केवल हठ से किया जाता है, तब दुष्टतापूर्ण होता है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥14॥[2]

देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी की पूजा, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अंहिसा-यह शारीरिक तप कहलाता है।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहिंत च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥15॥[3]

अनुद्वेगकारी, सत्य, प्रिय और हितकर वचन तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन और वाचन-यह वाचिक तप कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 17-6
  2. दोहा नं0 17-14
  3. दोहा नं0 17-15

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