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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
अनीश्वरवादजाति का दंभ और तथाकथित संस्कृति अथवा सभ्यता का मिथ्याभिमान या परोपकार भी उन पापों के फल से रखा नहीं कर सकता, जिन पर इन सबकी इमारत खड़ी हुई है। आत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता: मिथ्याभिमानी, हठी, धन तथा मान के मद में चूर ये लोग दिखावे के लिए नाम-मात्र के और विधिरहित यज्ञ करते हैं। अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: । अहंकार, शक्ति-लोलुपता, घमंड, काम और क्रोध का आश्रय लेने वाले ये निंदक-जन दूसरों के और अपने शरीर में रहने वाले ईश्वर से द्वेष करते हैं। अन्तरात्मा की आवाज न सुनना, अपना अधः पतन करना या दूसरों को हानि पहुंचाना ईश्वर के द्वेष के समान है; क्योंकि ईश्वर सब मनुष्यों के आत्मा में निवास करता है और उनके द्वारा दुःख भोगता है। अगले अध्याय में पृष्ठ 67 पर उद्धृत सत्रहवें अध्याय का छठा श्लोक भी देखिये। केवल तृष्णा की पूर्ति पर आश्रित जीवन के सब नियम विनाश की ओर ले जाते हैं। यह निर्णय करने में कि क्या शुभ और उचित है, मनुष्यों को पूर्वगामियों के अनुभव से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए ईश्वर और सत्य की खोज के फलस्वरूप साधुजनों और ज्ञानियों ने हमें ज्ञान का जो उत्तराधिकार प्रदान किया है, वही शास्त्र है। मनुष्य-जाति की प्रत्येक पीढ़ी के अनुसंधान की नींव पर नया भवन खड़ा करे, अन्यथा हम सिसिफस1 के समान अनंत काल तक पहाड़ पर पत्थर चढ़ाने के जैसे निष्फल कार्य में लगे रहेंगे। य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: । जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर स्वेच्छा से भोगों में लीन होता है, वह परम लक्ष्य के मार्ग पर नहीं चलता और न वह आध्यात्मिक शक्ति अथवा सांसारिक सुख ही प्राप्त कर सकता है। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । इसलिये कार्य और अकार्य का निर्णय करने में तुझे शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिये। शास्त्र-विधि क्या है यह जानकर इस संसार में तुझे कर्म करना चाहिए।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दोहा नं0 16-17
- ↑ दोहा नं0 16-18
- ↑ दोहा नं0 16-23
- ↑ दोहा नं0 16-24
- ↑ 1. सिसिफस-यूनानी पौराणिक कथाओं का एकमात्र पात्र। इसे नरक में पहाड़ पर पत्थर चढ़ाते रहने का दण्ड दिया गया था। यह जो पत्थर बड़े परिश्रम से चढ़ाता, वह नीचे लुढ़क जाता था और यह उसे फिर से चढ़ाता था। यही क्रम चलता रहता था।-अनु.
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