भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 63

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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अनीश्वरवाद

अनीश्वरवाद उन्नति, सभ्यता, शोषणा और युद्ध के झूठे विचार उत्पन्न करता है।

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय: ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण:क्षयाय जगतोऽहिता: ॥9॥[1]

इस प्रकार की दृष्टि का सहारा लेकर ये नष्टात्मा और अल्पबुद्धि मनुष्य उग्र कर्म करते हैं और जगत् के शत्रु बन जाते हैं तथा उसे नाश की ओर ले जाते हैं।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता: ।
मोहादृगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रर्तन्तेऽशुचिव्रता: ॥10॥[2]

तृप्त न होने वाली कामनाओं से भरे हुए, दंभी, मानी, मदांध, मोह से दुष्ट-संकल्पों को ही ग्रहण करके अशुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता: ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: ॥11॥[3]

मृत्यु तक समाप्त न होने वाली अपरिमित चिंताओं के अधीन होकर विषय-तृष्णा की पूर्ति को ही परम लक्ष्य मानने वाले और दृढ़ विश्वास रखने वाले कि इसके सिवा संसार में कुछ नहीं है-

आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा: ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् ॥12॥[4]

सैकड़ों आशाओं के जाल में फंसे हुए, कामी और क्रोधी, विषय-भोग के लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय की चाह रखते हैं।

सत्ता और सम्पत्ति के मद का-चाहे वह व्यक्तिगत हो, दलगत हो या राष्ट्रगत हो-और तज्जन्य विनाश तथा अराजकता का वर्णन नीचे दिया गया हैः

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 16-9
  2. दोहा नं0 16-10
  3. दोहा नं0 16-11
  4. दोहा नं0 16-12

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