भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 5

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विषय-प्रवेश

किसी भी धर्म को समझने के लिए भक्ति-भावना आवश्यक है। इस शंका से श्रीगणेश करना नितांत मूर्खता है कि किसी देश के धर्मसंस्थापक या धर्माचार्य अपने या किसी समाज विशेष के लाभ की किसी योजना में अभिरुचि रखने वाले कुशल प्रवंचक थे और शेष लोग इन प्रवंचकों के धोखे में आकर इन्हें अमर्याद और प्रेम को भावना से देखने लगे। प्राचीन काल के लोग, जिनसे हमने अपनी सब बुद्धि उत्तराधिकार में पाई है, उतने ही व्यावहारिक थे, जितने हम हैं; वे मनुष्यों और पदार्थों-संबंधी ज्ञान प्राप्त करने में उतना ही रस लेते थे, जितना कि हम लेते हैं, और यह भी कहना अनुचित न होगा कि उतने ही शंकाशील भी थे, जितने हम हैं। संभवतः उनमें बौद्धिक शक्ति भी उतनी ही थी, जितनी हममें है, परन्तु उनके पास मनुष्यों और पदार्थों की परीक्षा करने के लिये अधिक समय था, इसलिये यह विश्वास करना कि वे धोखे में आ गये या उनमें बुद्धिमान तथा पर्याप्त साहसी लोगों का अभाव था, जो उस दुष्टता को रोक सकते, पूरी तरह गलत धारणा पर चलना होगा। धर्मों ने किसी भी देश के साधारण मानव-समाज की क्रमागत पीढ़ियों की जो भक्ति प्राप्त की, वह इसलिये कि उनके संस्थापक पहले प्रत्यक्ष सम्पर्क के आधार पर और बाद को परम्परागत अनुभव के आधार पर साधु, निष्कपट और गहरा चिन्तन करने वाले महापुरुष माने गये, जो अनुसरण के योग्य थे। धर्म का अध्ययन करते समय खुफिया पुलिस की मनोवृत्ति का प्रदर्शन करना न केवल गलत है, वरन् वह उसे समझने के लिये अयोग्य थे। निःसन्देह वैयक्ति तथा वर्गगत हितों ने धर्म को मूल धर्म से मिलाना और मूल में प्रवंचना का आरोप करना सत्य की खोज में अवैज्ञानिक मनोविृत्ति का द्योतक है। हमारे भारतवर्ष के ऋषि थे, और केवल ऋषि थे। अतएव प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन श्रद्धा-भक्ति के साथ करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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