भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानजितात्मन: प्रशान्तस्य परमात्मा समाहित: । जिसने अपने मन को जीत लिया है और मन की शान्ति प्राप्त कर ली है उसका रूपान्तरित आत्मा सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख, मान और अपमान में समत्व भाव से रहता है। कर्मयोग की साधना के बाद-अर्थात् स्वार्थ-कामना से रहित होकर और सफलता अथवा असफलता के उद्विग्न हुए बिना अपने नियत कर्तव्य करने की साधना के बाद-मुमुक्षु को जितनी अधिक बार संभव हो, गहरे और निर्विघ्न ध्यान के लिये संसार का त्याग करना चाहिये। इस प्रकार का ध्यान मन की समता प्राप्त करने में बहुत सहायक होता है। निम्नलिखित श्लोकों में इस प्रकार के ध्यान का अभ्यास योग माना गया हैः योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: । मन का संयमन करके, कामनाओं और संग्रह का विचार छोड़कर, बहुधा एकान्त स्थान में एकाकी रहकर योगी को अपना मन अपने आत्मा पर एकाग्र करना चाहिये। शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: । पवित्र स्थान में अपने लिए बनाये हुए निश्चित आसन पर-जो न बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा हो- कुश, मृगचर्म और वस्त्र बिछाकर वह बैठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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