भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 44

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभो जयाजयौ ।
ततो यूद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥38॥[1]

सुख और दुःख, लाभ और हानि, जय और पराजय का सम भाव से स्वागत करके युद्ध के लिये तैयार हो। ऐसा करने से तुझे पाप नहीं लगेगा।

मनुष्य के अपने विचार और अपने कर्म ही उसके आत्मा के भवितव्य पर असर डालते हैं, बाहर से बारी-बारी से आने वाले सुख और दुःख नहीं।

सच्चा सुख संसर्गजन्य आनन्द से प्राप्त नहीं होता, वरन् आत्मसंयम से प्राप्त होता है। आत्मनिग्रह के अभ्यास से मन में उत्पन्न होने वाला समत्व ऐसा परिवर्तन करता है कि कहा जा सकता है, उससे शरीर के अन्दर बन्दी रहता हुआ भी आत्मा स्वतन्त्र हो जाता है।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥22॥[2]

जो सुख संस्पर्श से उत्पन्न होते हैं, वे दुःखों के मूल बन जाते हैं। वे आदि और अन्त वाले हैं। बुद्धिमान उनमें सुख का अनुभव नहीं करते।

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: ॥23॥[3]

वह मनुष्य सुखी है और योगी है, जिसने, देहान्त के पूर्व इस लोक में ही, काम और क्रोध के वेग को रोकने का अभ्यास कर लिया हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 2-38
  2. दोहा नं0 5-22
  3. दोहा नं0 5-23

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