भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 4

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विषय-प्रवेश

प्रश्न किया जा सकता है कि अज्ञात की चिन्ता क्यों की जाय? उसका क्या उपयोग है? उत्तर यह है कि वास्तविक की उपेक्षा करना मूर्खता है। अज्ञात इसलिए कम वास्तविक नहीं हो जाता कि वह ज्ञात नहीं है। हम उसके बारे में इतना जानते हैं कि उसका अस्तित्व है ओर सारी सृष्टि से-जिसमें हम भी सम्मिलित हैं-उसका घनिष्ठ संबंध है। फिर हम उसकी उपेक्षा कैसे कर सकते हैं? हम जानते हैं कि मानवीय दृष्टि के सामने आने वाली शून्यता वास्तव में शून्यता नहीं है। वह अत्यन्त महत्वपूर्ण वास्तविकता से परिपूर्ण है। यह बात भिन्न है कि हम उसमें गहरे नहीं उतर सकते, उसका विश्लेषण नहीं कर सकते या उसे समझ नहीं पाते।

क्या भौतिक जगत् में गणितशास्त्री ऐसी संख्याओं से काम नहीं लेता, जो व्याख्या के लिये बहुत छोटी या बहुत बड़ी होती है? क्या वह ऐसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग नहीं करता, जो मनुष्य की बुद्धि के लिये पूर्णतः अवास्तविक होती हैं? अपरिमिति, शून्य और असंख्यता की गणित शास्त्र में उपेक्षा नहीं की जाती, बल्कि इनसे विज्ञान के विकास में बहुत सहायता मिलती है और उस विज्ञान की सहायता से इंजीनियर और यंत्रशास्त्री सच्चे और उपयोगी निर्माण करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार जो हमें पहेली जैसा अथवा असीम दिखलाई पड़ता है, वह हमारे व्यावहारिक जीवन के लिये भी असत्य या निरुपयोगी नहीं है। हो सकता है कि गीता, उपनिषदों तथा संसार के अन्य धर्मग्रथों में जो कुछ कहा गया है वह हमें बहुधा उतना स्पष्ट न मालूम होता हो, जितना हम चाहते हैं। भौतिक विज्ञान में भी व्याख्या प्रमाणों के समान संतोषजनक नहीं होती। यह अनिवार्य है, क्योंकि वस्तु बिल्कुल भिन्न है, अतएव उसके अध्ययन करने की दृष्टि और प्रयोग पद्धति में अन्तर होना आवश्यक है। मनुष्य के तर्क की परिधि में आने वाले विषयों की व्याख्या की जा सकती है और उन्हें सिद्ध भी किया जा सकता है; परन्तु उसके परे के विषयों को समझने के लिये श्रद्धा और मनन की आवश्यकता है। धर्मग्रन्थों को श्रद्धापूर्ण मनन ही एकमात्र उपाय है, जिससे कि अज्ञात सत्य की झलक प्राप्त की जा सकती है। पहले जो परस्पर विरोधी वाक्यांशों की निरर्थक ध्वनि-सी मालूम होती है वही मन और कर्मों को शुद्ध कर लेने से तथा ध्यान और प्रार्थना के बल से ठोस और अर्थगर्भित बन जाता है। प्रच्छन्न एक नया और विलक्षण प्रकाश पड़ता है, जिससे हम देखने लगते हैं- भले ही हमारा देखना धुंधला क्यों न हो। इसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने देखा और इसी प्रकार फिर से हम भी देखेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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