भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 33

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

विहित कर्म

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता नयाऽनघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3॥[1]

मैंने पहले दो मार्ग बतलाये हैं-एक तो सांख्यों का बताया हुआ सत्य के साक्षात्कार द्वारा योग का और दूसरा योगियों का बताया हुआ निःस्वार्थ तथा अनासक्त कर्म द्वारा योग का। मनुष्य इनमें से किसी भी मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिंसमधिगच्छति ॥4॥[2]

कर्म का आरम्भ न करने से आत्मा को कर्म से निवृत्ति प्राप्त नहीं होती और न कर्म के केवल बाहरी त्याग के मोक्ष प्राप्त होता है।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥5॥[3]

कोई एक क्षण भी वास्तव में कर्म किये बिना नहीं रह सकता। प्रकृति से उत्पन्न हुए गुण परवश पडे़ प्रत्येक मनुष्य से कर्म कराते हैं।

मनुष्य कर्म को छोड़ने और संन्यास का मार्ग ग्रहण करने के बड़े-बडे़ प्रयत्न करते हैं; परन्तु उनका परिणाम मिथ्याचार, आत्म-प्रवंचना और मन की अधिकाधिक अशुद्धि ही होती है। अधिक सुरक्षित मार्ग यह है कि अलिप्त भाव से कर्म करने का प्रयत्न किया जाय।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 3-3
  2. दोहा नं0 3-4
  3. दोहा नं0 3-5

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः