भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 32

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

मन से सब कर्मों को मुझे समर्पित करके, मुझे प्राप्त करने के लिये आतुर होकर, बुद्धिमान का अभ्यास कर और सदा अपने चित्त को मुझ से परिपूरित रख।

मन की स्थिरता प्राप्त करने के लिये आत्मा को सच्चे स्वरूप और प्रकृति तथा पुरुष के साथ उसके संबंध का निरंतर मनन करते रहना आवश्यक है। परन्तु इस प्रकार का मनन तब तक असंभव और व्यर्थ है जब तक अपने कर्म करते हुए उनसे अलिप्त रहने का अभ्यास न किया जाय। सत्य के मनन द्वारा मन की स्थिरता प्राप्त करना और साधारण कर्मों में अलिप्त रहने का अभ्यास करना-ये दोनों वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं। प्रयत्न के सफल हो जाने के पश्चात् इनमें कोई सच्चा भेद नहीं रह जाता। जब मन आत्मसंयम, अलिप्तता और ईश्वर के साथ एक हो जाने की उत्कंठा से परिपूर्ण हो जाता है और मनुष्य इसी अवस्था में रहने लगता है तब बुद्धियोग सिद्ध होता है।

समय के पूर्व संसार का त्याग करने से मन की स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती। कर्म-निवृत्ति का वास्तविक महत्व व्यक्तिगत कामना अथवा हेतु की निवृत्ति में निहित है और वह निष्काम कर्म से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार संन्यास और कर्म योग अभिन्न हैं।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥[1]

तेरा कर्तव्य केवल कर्म करना है, उसके फल की चिन्ता करना कदापि नहीं; इसलिये, कर्म का फल तेरा हेतु न हो; कर्म न करने का भी तुझे आग्रह न हो।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥[2]

योगस्थ होकर, आसक्ति त्याग कर कर्म कर और सफलता-असफलता में सम-भाव रख। समता की ही योग कहा जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 2-47
  2. दोहा नं0 2-48

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