भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 28

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मन: ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥42॥[1]

इसलिये ज्ञानरूपी खड्ग से अपने हृदय से इस अज्ञान-जन्य संशय को नष्ट कर और योग में स्थिर होकर खड़ा हो जा।

इस प्रकार त्याग और कर्त्तव्य-पालन के मार्गों में कोई वास्तविक भेद नहीं है। सच्चा त्याग और सच्चा कर्त्तव्य-पालन एक ही बात है। दोनों का सार व्यक्तिगत इच्छाओं को छोड़ना ही है।

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: ।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥[2]

सांख्य और योग की बालक ही भिन्न बताते हैं, पंडित नहीं। किसी में भी उचित रीति से स्थिर रहने वाला दोनों का फल पाता है।

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ॥1॥[3]

जो मनुष्य विहित कर्म को अपने कर्तव्य के रूप में और फल की आशा किये बिना करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी; जो अग्नि का और समस्त क्रियाओं का त्याग करके बैठ जाता है, वह नहीं।

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥2॥[4]

जिसे संन्यास कहते हैं उसे तू योग जान। जिसने मन के संकल्पों को त्यागा नहीं, वह कभी योगी नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 4-42
  2. दोहा नं0 5-4
  3. दोहा नं0 6-1
  4. दोहा नं0 6-2

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