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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मतस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मन: । इसलिये ज्ञानरूपी खड्ग से अपने हृदय से इस अज्ञान-जन्य संशय को नष्ट कर और योग में स्थिर होकर खड़ा हो जा। इस प्रकार त्याग और कर्त्तव्य-पालन के मार्गों में कोई वास्तविक भेद नहीं है। सच्चा त्याग और सच्चा कर्त्तव्य-पालन एक ही बात है। दोनों का सार व्यक्तिगत इच्छाओं को छोड़ना ही है। सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: । सांख्य और योग की बालक ही भिन्न बताते हैं, पंडित नहीं। किसी में भी उचित रीति से स्थिर रहने वाला दोनों का फल पाता है। अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: । जो मनुष्य विहित कर्म को अपने कर्तव्य के रूप में और फल की आशा किये बिना करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी; जो अग्नि का और समस्त क्रियाओं का त्याग करके बैठ जाता है, वह नहीं। यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव । जिसे संन्यास कहते हैं उसे तू योग जान। जिसने मन के संकल्पों को त्यागा नहीं, वह कभी योगी नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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