भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 21

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

यह सत्य होते हुए भी कि ईश्वर सबका भरण-पोषण करता है, हम इससे अनभिज्ञ हैं, क्योंकि हम स्वयं और हमारी सम्पूर्ण वीक्षणशक्ति, विचार, तर्क और भावनाएं उसकी भरण-परिधि के अन्तर्गत हैं। प्रकृति के नियम ईश्वर की इच्छा है, हमें जो कुछ प्रत्यक्षतः अथवा अनुसंधान से दिखलाई पड़ता है, परन्तु जिसे हम सत्य अथवा प्रकृति का नियम कहते हैं, वही उसकी इच्छा का प्रकट रूप है। ईश्वर ही नियम है और नियम ही ईश्वर है। वह नियम के द्वारा शासन करता है और दिखलाई ऐसा पड़ता है, मानो नियम ही शासन करता हो, वह नहीं। दोनों भिन्न नहीं हैं, न उनमें कभी भिन्नता हो सकती है। निम्नलिखित दृष्टांत ईश्वर की इच्छा और प्रकृति के नियमों की इस अभिन्नता को स्पष्ट करने में सहायक होगा।

मान लीजिये, कोई जादूगर एक तालाब की रचना करता है और अपने उसी जादू से उस तालाब में मछलियां तथा अन्य जल-जीव उत्पन्न करता है, जिनमें मर्यादित मात्रा में विवेक-बुद्धि है। मछलियों को वह पानी, तालाब अपने जीवन की सब परिस्थितियां प्राकृतिक माननी होंगी। उन्हें क्या पता कि यह सब जादूगर की इच्छा का परिणाम है और स्वयं वे भी उसकी ही इच्छा से उत्पन्न हुई हैं। यदि जादूगर पानी और मछलियाँ उत्पन्न न करके मिट्टी का तेल और उसमें मछलियां उत्पन्न करता है और यदि अंतरे दिन मिट्टी का तेल पानी में और पानी मिट्टी के तेल में परिवर्तित होता रहता, तो भी समझने वाली मछलियां इस सबको ‘प्राकृतिक’ ही मानतीं। उन्होंने अपने सब पर्यवेक्षणों का संश्लेषण करके अपने मन में उसे प्राकृतिक नियमों का रूप दे दिया होता। वे वास्तविक रचयिता और नियामक से अनभिज्ञ रहतीं। इसी प्रकार भौतिक प्रकृति के नियम ईश्वर को छिपा लेते हैं, यद्यपि वे उसकी इच्छा के प्रकट रूप-मात्र हैं। उसका शासन इतना पूर्ण है कि वह रंगभूमि पर अदृश्य होता हुआ भी नियम में सदैव विद्यमान रहता है।

ईश्वर की इच्छा जगत् की प्राकृतिक सर्जन-शक्ति और नियम के अनुल्लंघनीय शासन के रूप में निरन्तर क्रियाशील रहती है। उसके इस पहले रूप को सातवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में ‘योगमाया’ और दूसरे को नवम अध्याय के पांचवे श्लोक में ‘योगम्-ऐश्वरम्’ कहा गया है। ईश्वर ही जीवन के समस्त दृश्य अंगों और जटिलताओं में आद्योपांत प्रवृत्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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