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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ईश्वर और प्रकृतिये चैव सात्त्विका भावा राजसास्ताद्यसाश्च ये । सब सात्विक, राजस तथा तामस भावों को मुझ से उत्पन्न हुआ जान। वे मुझ से विकार उत्पन्न नहीं करते, परन्तु स्थित मुझ में ही है। त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् । यह सारा जगत् इन त्रिगुण भावों से मोहित है, इसलिये इनसे श्रेष्ठतर मुझ अविनाशी को नहीं पहचानता। दैवी ह्योषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । इस दैवी माया को, जिसे मैं चलाता हूं और जो त्रिगुणों पर आधारित है, पार करना कठिन है; परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इसे पार कर सकते हैं। नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:। मैं अपनी सर्जनात्मक प्रवृत्ति-योगमाया-ये ढका हुआ हूँ; अतएव मुझे देखा नहीं जा सकता। यह मूढ़ जगत् मुझ अजन्मा को नहीं जानता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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