भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 19

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्ताद्यसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि ॥12॥[1]

सब सात्विक, राजस तथा तामस भावों को मुझ से उत्पन्न हुआ जान। वे मुझ से विकार उत्पन्न नहीं करते, परन्तु स्थित मुझ में ही है।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ॥13॥[2]

यह सारा जगत् इन त्रिगुण भावों से मोहित है, इसलिये इनसे श्रेष्ठतर मुझ अविनाशी को नहीं पहचानता।

दैवी ह्योषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥14॥[3]

इस दैवी माया को, जिसे मैं चलाता हूं और जो त्रिगुणों पर आधारित है, पार करना कठिन है; परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इसे पार कर सकते हैं।

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥25॥[4]

मैं अपनी सर्जनात्मक प्रवृत्ति-योगमाया-ये ढका हुआ हूँ; अतएव मुझे देखा नहीं जा सकता। यह मूढ़ जगत् मुझ अजन्मा को नहीं जानता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 7-12
  2. दोहा नं0 7-13
  3. दोहा नं0 7-14
  4. दोहा नं0 7-25

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