भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 17

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्नाप्रकृतिरष्टधा ॥4॥[1]

भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार मेरी प्रकृति के आठ रूप हैं।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेवं धार्यते जगत् ॥5॥[2]

यह भौतिक प्रकृति, जिसका मैंने वर्णन किया है, मेरे निम्न कोटि के रूप का प्रकटन-अपरा प्रकृति-है। मेरी दूसरी और उच्चतर-प्रकृति-परा प्रकृति-वह जीवन-सिद्धान्त है, जिससे इस जगत् का धारण होता है।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥6॥[3]

इन दोनों को भूतमात्र का उत्पत्ति-स्थान जान। समस्त विश्व की उत्पत्ति और लय का कारण मैं हूँ।

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7॥[4]

मुझसे श्रेष्ठ दूसरा कुछ नहीं है। धागे में मणियों के समान यह सब मुझसे पिरोया हुआ है।

प्रकृति की चराचर वस्तुओं के परमात्मा पर अवलम्बन का उदाहरण निम्नांकित चार श्लोकों में पाया जाता हैः

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 7-4
  2. दोहा नं0 7-5
  3. दोहा नं0 7-6
  4. दोहा नं0 7-7

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