भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 16

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

(अध्याय 7-श्लोक 4-14,25 और 27। अध्याय 9-श्लोक 4-6,8,10 और 16-19। अध्याय 15-श्लोक 16-18)

जीवन कैसे व्यतीत किया जाय, इस सम्बन्ध में गीता की शिक्षा का अध्ययन हम अगले अध्याय में पुनः करेंगे। इस अध्याय में विश्व की पहेली के सम्बन्ध में हिन्दू मत पर विचार करना उपयोगी होगा। यह एक महान ‘व्यक्त रहस्य’ है और जब से मनुष्य ने गंभीरतया विचार करना शुरू किया, यह रहस्य बराबर उसे उलझन में डालता रहा। भविष्य में भी सदा यह उसी तरह की पहेली बना रहेगा, इस विषय पर गीता के अध्याय 7, 9 और 15 का अध्ययन आवश्यक है।

प्रकृति के सब भौतिक तत्वों से, जिनमें चेतन वस्तुओं के अचेतन शरीर और उनकी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के कार्य भी सम्मिलित हैं, विश्व का सदा-विकारी जड़-रूप बनता है। इस रूप को प्रकृति कहा जाता है। चेतन जगत् के अन्दर आत्मा अधिवास करता है। वह सब प्राणियों के अन्तः स्थल में वास करता हुआ उन्हें चेतना प्रदान करता है। इन सबके अन्तःस्थल में परमात्मा है। समग्र सृष्टि में दिखलाई पड़ने -वाले विकारों को उसकी ही शक्ति समन्वित करती है। वह प्रत्येक वस्तु के अन्दर रहता है, प्रत्येक वस्तु का आधार है और प्रत्येक वस्तु को गति प्रदान करता है; परन्तु फिर भी सबसे अलग रहता है।

सृष्टि प्रकृति के नियमों के अनुसार चलती है। प्रकृति का नियम परमात्मा की इच्छा का प्रकट रूप-मात्र है। स्वयं परमात्मा अपने पूर्ण रूप में दिखलाई नहीं पड़ता। उसका जो रूप दिखलाई पड़ता है, उसे हम भौतिक और नैतिक नियम कहकर संतोष कर लेते हैं और जीवन इस प्रकार चला जाता है, मानो वह परमात्मा से पूर्णतया स्वतंत्र हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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