भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 15

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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कर्म

ऊपर पंद्रहवें अध्याय के श्लोक 7,8 और 9 उद्धृत किये जा चुके हैं। निम्नलिखित श्लोक भी इस विषय में अध्यय के योग्य हैः

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥19॥[1]

प्रकृति और आत्मा दोनों को अनादि जान और यह भी जान कि विकार और गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरूच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥20॥

[2]

कारण और कार्य की उत्पत्ति प्रकृति से होती है; परन्तु उनका कारण आत्मा है और वह सुख तथा दुःख का योग करता है।

पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥21॥[3]

प्रकृति में स्थित आत्मा प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इस भोग के प्रति आसक्ति ही उसके अच्छी-बुरी योनि में जन्म लेने का कारण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 13-19
  2. दोहा नं0 13-20
  3. दोहा नं0 13-21

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