भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
कर्मऊपर पंद्रहवें अध्याय के श्लोक 7,8 और 9 उद्धृत किये जा चुके हैं। निम्नलिखित श्लोक भी इस विषय में अध्यय के योग्य हैः प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । प्रकृति और आत्मा दोनों को अनादि जान और यह भी जान कि विकार और गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरूच्यते । कारण और कार्य की उत्पत्ति प्रकृति से होती है; परन्तु उनका कारण आत्मा है और वह सुख तथा दुःख का योग करता है। पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । प्रकृति में स्थित आत्मा प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इस भोग के प्रति आसक्ति ही उसके अच्छी-बुरी योनि में जन्म लेने का कारण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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