भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 12

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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कर्म

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥7॥[1]

मेरा ही अंश जीवलोक में सनातन आत्मा बनता है; वह प्रकृति में स्थिर पांच इन्द्रियों और उनका नियंत्रण करने वाले मन को अपनी ओर आकर्षित करता है।

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥8॥[2]

आत्मा जब किसी शरीर का स्वामित्व ग्रहण करता अथवा त्यागता है तब वह इन इन्द्रियों और मन को उसी तरह अपने साथ ले जाता है, जैसे वायु सुगंध को एक कुंज से दूसरे कुंज में ले जाता है ।

श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥9॥[3]

वह कान, आंख, त्वचा, जीभ और नाक तथा मन का भी सहारा लेकर इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 15-7
  2. दोहा नं0 15-8
  3. दोहा नं0 15-9

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