भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन' हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

कृष्ण द्वारा अर्जुन से भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन करना

सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अर्कतापन का प्रतिपादन किया था। अब वे उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन अर्जुन से करते हैं। और कहते हैं -हे अर्जुन! ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा[2] है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है।[3] गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन।[4] जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान।[5] किंतु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान।[6] परन्‍तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्ति वाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है।[7] जो कर्म शास्त्रविधि के नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो[8]- वह सात्त्विक कहा जाता है।[9] परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है[10] तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है।[11] जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्‍य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।[12] जो कर्ता संग रहित, अहंकार के वचन बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है।[13] जो कर्ता आसक्ति युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धा-चोरी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।[1] जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित, घमंडी,[14] धूर्त[15] और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला[16] तथा शोक करने वाला आलसी[17] और दीर्घ सूत्री[18] है वह तामस कहा जाता है।[19]

सम्बन्ध- इस प्रकार तत्त्वज्ञान में सहायक सात्त्विक भाव को ग्रहण कराने के लिये और उसके विरोधी राजस-तामस भावों- का त्याग कराने के लिये कर्म-प्रेरणा तथा कर्म-संग्रह में से ज्ञान, कर्म और कर्ता के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब कृष्ण बुद्धि और धृति के सात्त्विक, राजस और तामस-इस प्रकार त्रिविध भेद क्रमशः बतलाने की प्रस्तावना करते हुए बतलाते हैं और कहते हैं- हे धनंजय! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पुर्णता से विभाग पूर्वक कहा जाने वाला सुन।[20] हे पार्थ! जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग[21] और निवत्ति मार्ग[22] कर्तव्य और अकर्तव्य को,[23] भय और अभय को[24] तथा बन्धन और मोक्ष को[25] यथार्थ जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है। हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को[26] तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को[27] भी यर्थाथ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।[28] हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है[29] तथा इसी प्रकार अन्य सम्‍पूर्ण पदार्थों को भी विपरित मान लेती हैं[30] यह बुद्धि तामसी है।[31] हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति मनुष्य ध्यानयोग द्वारा, मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, यह धृति सात्त्विकी है।[32] परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छा वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है,[33] वह धारणशक्ति राजसी है। हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ना अर्थात् धारण किये रहता है,[34] वह धारणशक्ति तामसी है।

सम्बन्ध-इस प्रकार सात्त्विक की बुद्धि और घृति का ग्रहण तथा राजसी -तामसी का त्याग करने के लिये बुद्धि और घृति के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब, जिसके लिये मनुष्य समस्त कर्म करता है, उस सुख के भी सात्त्विक, राजस और तामस इस प्रकार तीन भेद क्रम से बतलाते हैं।[31] हे भरतश्रेष्‍ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है[35] और दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है[36] जो ऐसा सुख है, वह आरम्भ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है,[37] परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है[38] इसलिये वह परमात्मा विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख[39] सात्त्विक कहा जाता है। जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।[40] जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख[41] तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कही भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।[42][43]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 18-27
  2. किसी भी पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने वाले को ‘ज्ञाता’ कहते हैं वह जिस वृत्ति के द्वारा वस्तू के स्वरूप का निश्चय करता है, उसका नाम ‘ज्ञान’ है और जिस वस्तु के स्वरूप का निश्चय करता है, उसका नाम ‘ज्ञेय’ है। इन तीनों का सम्बन्ध ही मनुष्य कों कर्म में प्रवृत्त करने वाला है क्‍योंकि जब अधिकारी मनुष्य ज्ञानवृत्ति द्वारा यह निश्चय कर लेता है कि अमुक-अमुक साधनों द्वारा अमुक प्रकार के अमुक सुख की प्राप्ति के लिये अमुक कर्म मुझे करना है, तभी उसकी उस कर्म में प्रवृत्ति होती है।
  3. देखना, सुनना, समझना, स्मरण करना, खाना, पीना आदि समस्त क्रियाओं को करने वाले प्रकृतिस्थ पुरुष को ‘कर्ता’ कहते हैं; उसके जिन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा उपर्युक्त समस्त क्रियाएं की जाती है, उसको ‘करण’ और उपर्युक्त समस्त क्रियाओं को ‘कर्म’ कहते हैं। इन तीनों के संयोग से ही कर्म का संग्रह होता है, क्‍योंकि जब मनुष्य स्वयंकर्ता बनकर अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा क्रिया करके किसी कर्म को करता है, तभी कर्म बनता है, इसके बिना कोई भी कर्म नही बन सकता। इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में जो कर्म की सिद्धि के अधिष्ठानादि पांच हेतू बतलाये गये हैं, उनमें से अधिष्ठान और दैव को छोड़कर शेष तीनों को ‘कर्म-संग्रह’ नाम दिया गया है।
  4. जिस शास्त्र में सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के सम्बन्ध से समस्त पदार्थों के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना की गयी हो, ऐसे शास्त्र का वाचक ‘गुणसंख्याने’ पद है। अतः उनमें बतलाये हुए गुणों के भेद से तीन प्रकार के ज्ञान, कर्म ओर कर्ता को सुनने के लिये कहकर भगवान ने उस शास्त्र को इस विषय में आदर दिया है। ओर कहे जाने वाले उपदेश को ध्यानपूर्वक सुनने के लिये अर्जुन को सावधान किया है।
    ध्यान रहे की ज्ञाता और कर्ता अलग-अलग नहीं है, इस कारण भगवान ने ज्ञाता के भेद अलग नहीं बतलाये हैं तथा करण के भेद बुद्धि के और घृति के नाम से एवं ज्ञेय के भेद सुख के नाम से आगे बतलायेंगे। इस कारण यहाँ पूर्वोक्त छः पदार्थों में से तीन के ही भेद पहले बतलाने का संकेत किया।
  5. जिस प्रकार आकाश-तत्त्व को जानने वाला मनुष्य घडा, मकान, गुफा, स्‍वर्ग और पाताल और समस्त वस्तूओं के सहित सम्पूर्ण ब्राह्मण्‍ड में एक ही आकाश तत्त्व को देखता है, वैसे ही लोकदृष्टि भिन्न भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त चराचर प्राणियों में गीता के छठे अध्याय के उन्तीसवें और तेरहवें अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में वर्णित सांख्योग के सावन से होने वाले अनुभव के द्वारा एक अद्वितीय अविनाशी निर्विकार ज्ञानस्वरूप परमात्मा भाव को विभागरहित समयाभाव से व्याप्त देखना ही सात्त्विक ज्ञान है।
  6. कीट, पतंगे, पशु, पक्षी, राक्षस, मनुष्य और देवता आदि जितने भी प्राणी है, उन सब में आत्मा को उनके शरीरों की आकृति के भेद से और स्वभाव के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक और अलग अलग समझना ही राजस ज्ञान है।
  7. जिस विपरित ज्ञान के द्वारा मनुष्य प्रकृति के कार्यरूप शरीर को ही अपना स्वरूप समझ लेता है और दुःख से कर उस क्षणभंगुर नाशवान शरीर में सर्वस्व की भाँति आसक्त रहता है। अर्थात उसके सुख से सुखी एवं उनके दुःख में दुःखी होता है तथा उनके नाश से ही सर्वनाश मानता है, आत्मा को उससे भिन्न या सर्वव्यापी नहीं समझता- वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान नहीं है। इसलिये भगवान् इस श्लोक में ‘ज्ञान’ पद का प्रयोग भी नहीं किया है क्‍योंकि वह विपरित ज्ञान वास्तव में अज्ञान ही है।
  8. कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के जितने भी योग है, उसमें ममता और आसक्ति का अभाव हो जाने के कारण जिसको किंचिन्मात्र भी उन भोगों की आकांशा नहीं रही है, जो किसी भी कर्म से अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध करना नहीं चाहता, जो अपने लिये किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं समझता- ऐसे पुरुष द्वारा होने वाले जो कर्म राग-द्वेष के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये होते है- उन कर्मों को ‘बिना राग-द्वेष के किया हुआ कर्म’ कहते हैं।
  9. इसी अध्याय के नवें श्लोक में वर्णित सात्त्विक त्याग से इस सात्त्विक कर्म में यह विशेषता है कि इसमें कर्तापन के अभिमान का और राग-द्वेष का भी अभाव दिखलाया गया है; किंतू नवें श्लोक में कर्मों में आसक्ति और फलेच्छा का त्याग ही बतलाया गया है, कर्तापन के अभाव की बात नहीं कही है, बल्कि कर्तव्य बुद्धि से कर्मों को करने के लिये कहा है। दोनों का ही फल तत्त्व ज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति है भेद केवल अनुष्ठान के प्रकाश का है।
  10. सात्त्विक कर्म से राजस कर्म का यह भेद है कि सात्त्विक कर्मों के कर्ता का शरीर में अहंकार नहीं होता और कर्मों में कर्तापन नहीं होता अतः उसे किसी भी क्रिया के करने में किसी प्रकार के परिश्रम या क्लेश का बोध नहीं होता। इसलिये उसके कर्म आयासयुक्त नहीं है किंतु राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुःखों से स्वयं दुःखी होता है। इस कारण उसे प्रत्येक क्रिया में परिश्रम बोध होता है। इसके सिवा सात्त्विक कर्मों के कर्ता द्वारा केवल शास्त्रदृष्टि या लोकदृष्टि से कर्तव्यरूप में प्राप्त हुए कर्म ही किये जाते हैं। अतः उसके द्वारा कर्मों का विस्तार नहीं होता है; किंतु राजस कर्म का कर्ता आसक्ति और कामना से प्रेरित होकर प्रतिदिन नये-नये कर्मों का आरम्भ करता रहता है, इससे उसके कर्मों का बहुत विस्तार हो गया है। इस कारण यहाँ बहुत परिश्रम वाले कर्मों को राजस बतलाया गया है।
  11. जिस पुरुष में भोगों की कामना और अहंकार दोनों है, उसके द्वारा किये हुए कर्म राजस है- इसमें तो कहना ही क्या है; किंतु इनमें से किसी एक दोष से युक्त पुरुष द्वारा किये हुए कर्म भी राजस ही है।
  12. किसी भी कर्म का आरम्भ करने से पहले अपनी बुद्धि से विचार करके जो यह सोच लेना है कि अमुक कर्म करने से उसका भावी परिणाम अमुक प्रकार से सुख की प्राप्ति या अमुक प्रकार से दुःख की प्राप्ति होगा, यह उसके अनुबन्ध का यानी परिणाम का विचार करना है तथा जो यह सोचना है कि अमुक कर्म में इतना धन व्यय करना पडेगा, इतने बल का प्रयोग करना पडेगा, इतना समय लगेगा, अमुम अंश में धर्म की हानि होगी और अमुक-अमुक प्रकार की दूसरी हानियां होगी- यह क्षय का यानी हानि का विचार करना है और जो यह सोचना है कि अमुक कर्म के करने से अमुक मनुष्यों को या अन्य प्राणियों को अमुक प्रकार से कितना कष्ट पहुँचेगा, अमुक मनुष्यों का या अन्य प्राणिया का जीवन नष्ट होगा- यह हिंसा का विचार करना है। इसी तरह जो यह सोचना है कि अमुक कर्म करने के लिये इतने सामर्थ्‍य की आवश्यकता है, अतः इसे पूरा करने की सामर्थ्‍य इसमें है या नहीं यह पौरूष का यानी सामर्थ्‍य का विचार करना है। इस तरह परिणाम, हानि, हिंसा और पौरूष-इन चारों का या चारों में से किसी एक का विचार न करके केवल मोह से कर्म का आरम्भ करना ही तामस कर्म हैं।
  13. शास्त्रविहित स्वधर्म पालनरूप किसी भी कर्म के करने में बड़ी से बड़ी विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर भी विचलित न होना ‘धैर्य’ है और कर्म सम्पादन में सफलता न प्राप्त होने पर या ऐसा समझकर कि यदि मुझ फल की इच्छा नहीं है तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है- किसी भी कर्म से न उकताना, किंतु जैसे कोई सफलता प्राप्त कर चुकने वाला और कर्मफल को चाहने वाला मनुष्य करता है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक उसे करने के लिये उत्सुक रहना ‘उत्साह’ है। इन दोनों गुणों से युक्त होर जो मनुष्य न तो किसी भी कर्म के पूर्ण होने में हर्षित होता है और न उसमें विघ्न उपस्थित होने पर शोक ही करता है तथा इसी तरह जिसमें अन्य किसी प्रकार का भी कोई विकार नहीं होता, जो हरेक अवस्था में सदा-सर्वदा सम रहता है- ऐसा समतायुक्त पुरुष ही सात्त्विक कर्ता है।
  14. जिसका स्वभाव अत्यन्त कठोर है, जिसमें विनय का अत्यन्त अभाव है, जो सदा ही घमंड में चूर रहता है- अपने सामने दूसरों को कुछ भी नहीं समझता- ऐसे मनुष्य को ‘घमण्डी’ कहते हैं।
  15. जो दूसरों को ठगने वाला वञ्चक है, द्वेष को छिपाये रखकर गुप्तभाव से दूसरों का अपकार करने वाला है, मन ही मन दूसरों का अनिष्ट करने के लिये दाव-पेच सोचता रहता है-ऐसे मनुष्य को ‘र्धूत’ कहते हैं।
  16. नाना प्रकार के दूसरों की वृत्ति बाधा डालना ही जिसका स्वभाव है- ऐसे मनुष्य को दूसरों की जीविका का नाश करने वाला कहते हैं।
  17. जिसका रात-दिन पड़े रहने का स्वभाव है, किसी भी शास्त्रीय या व्यावहारिक कर्तव्य-कर्म में जिसकी प्रवृत्ति और उत्साह नहीं होते, जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों में आलस्य भरा रहता है- वह मनुष्य ‘आलसी’ है।
  18. जो किसी कार्य का आरम्भ करके बहुत काल तक उसे पूरा नहीं करता-आज कर लेंगे, कल कर लेंगे, इस प्रकार विचार करते-करते एक रोज में हो जाने वाले कार्य के लिये बहुत समय निकाल देता है और फिर भी उसे पूरा नहीं कर पाता- ऐसे शिथिल प्रकृति वाले मनुष्य को ‘दीर्धसुत्री’ कहते हैं।
  19. जिस पुरुष में उपर्युक्त समस्त लक्षण घटते हों या उनमें से कितने ही लक्षण घटते हों, उसे तामस कर्ता समझना चाहिये।
  20. ‘बुद्धि’ शब्द यहाँ निश्चय करने की शक्ति विशेष का वाचक है, इस अध्याय के बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें श्लोकों में जिस ज्ञान के तीन भेद बतलाये गये हैं।, वह बुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान यानी बुद्धि की वृत्ति विशेष है। और यह बुद्धि उसका कारण है। अठारहवें श्लोक में ‘ज्ञान’ शब्द कर्म-प्रेरणा के अन्तर्गत आया है और बुद्धि का ग्रहण ‘करण’ के नाम से कर्म संग्रह में किया गया है। यही ज्ञान का और बुद्धि का भेद है। यहाँ कर्म संग्रह में वर्णित करणों के सात्त्विक-राजस-तामस भेदों को भलीभाँति समझाने के लिये प्रधान ‘करण’ बुद्धि के तीन भेद बतलाये ताते हैं।
    ‘धृति’ शब्द धारण करने की शक्ति विशेष वाचक है यह भी बुद्धि की ही वृत्ति है। मनुष्य किसी भी क्रिया या भाव को इसी शक्ति के द्वारा दृढतापूर्वक धारण करता है। इस कारण वह ‘करण’ के ही अन्तर्गत है। इस अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में सात्त्विक कर्ता के लक्षणों में ‘धृति’ शब्द का प्रयोग हुआ है, इससे यह समझने की गुजाइश हो जाती है। कि ‘धृति’ केवल सात्त्विक ही होती है; किंतु ऐसी बात नहीं है, इसके भी तीन भेद होते हैं- यही बात समझाने के लिये इस प्रकरण में ‘धृति’ के तीन भेद बतलाये गये हैं।
  21. गृहस्थ-वानप्रस्थादि आश्रमों में रहकर ममता, आसक्ति, अहंकार और फलेच्छा का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति के लिये उसकी उपासना का तथा शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों का, अपने वर्णाश्रमधर्म के अनुसार जीविका के कर्मों का और शरीर सम्बन्धी खान-पान आदि कर्मों का निष्कामभाव से आचरण रूप जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है- वह ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है और राजा जनक, अम्बरीष, महर्षि वसिष्ठ और याज्ञवल्क्य आदि की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना हैं।
  22. समस्त कर्मों का और भोगों का बाहर-भीतर से सर्वथा त्याग करके, संन्यास-आश्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये सब प्रकार की सांसारिक झंझटो से विरक्त होकर अहंता, ममता, और आसक्ति के त्यागपूर्वक शम, दम तितिक्षा आदि साधनों के सहित निरन्तर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना या केवल भगवान् के भजन, स्मरण, कीर्तन आदि में ही लगे रहना-इस प्रकार जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है, उसका नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है और श्रीसनकादि, नारद जी, ऋषभदेव जी और शुकदेवजी की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है।
  23. वर्ण, आश्रम, प्रकृति, और परिस्थिति और देश काल की अपेक्षा से जिसके लिये जिस समय जो कर्म करना उचित है, वही उसके लिये ‘कर्तव्य’ है। और जिस समय जिस लिये जिस कर्म का त्याग उचित है, वही उसके लिये ‘अकर्तव्य’ है, इन दोनों को भलीभाँति समझ लेना-अर्थात् किसी भी कार्य के सामने आने पर यह मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य, इस बात का यर्थाथ निर्णय कर लेना ही कर्तव्य और कर्तव्य को यथार्थ जानना है।
  24. किसी दुःखप्रद वस्तू या घटना के उपस्थित हो जाने पर उसकी सम्भावना होने से मनुष्य के अन्तःकरण में जो एक आकुलताभरी कम्पवृत्ति होती है, उसे ‘भय’ कहते हैं। और इससे विपरित जो भय के अभाव की वृत्ति है, उसे ‘अभय’ कहते हैं। इन दोनों के तत्त्वों को भलीभाँति समझकर निभर्य हो जाना ही भय ओर अभय इन दोनों को यथार्थ जानना है।
  25. शुभाशुभ कर्मों के सम्बन्ध से जो जीव को अनादि काल से निरन्तर परवश होकर जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकना पड़ रहा है, वही ‘बन्धन’ है और सत्संग के प्रभाव से कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग आदि साधनों में से किसी साधन के द्वारा भगवत्कृपा से समस्त शुभाशुभ कर्मबन्धनों को कट जाना और जीव का भगवान् को प्राप्त हो जाना ही ‘मोक्ष’ है।
  26. अहिंसा, सत्य, दशा, शांति, ब्रह्मचर्य, शम, दम, तितिक्षा, तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्ययन, प्रजापालन, कृषि, पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्रविहित शुभकर्म है- जिन आचरणों का फल शास्त्रों में इस लोक और परलोक के सुख-भोग बतलाया गया है-तथा जो दूसरों के हित कर्म है, उन सब का नाम ‘धर्म’ है, एवं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, दम्भ, अभक्ष्य भक्षण आदि जितने भी पापकर्म है- जिनका फल शास्त्रों में दुःख बतलाया है-उन सबका नाम ‘अधर्म’ है। किस समय किस परिस्थिति में कौन-सा कर्म धर्म है और कौन सा कर्म अधर्म है- इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में बुद्धि का कुण्ठित हो जाना, या संशययुक्त हो जाना आदि उन दोनों का यथार्थ न जानना है।
  27. वर्ण, आश्रम, प्रकृति, परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो शास्त्रविहित करने योग्य कर्म है- वह कार्य (कर्तव्य) है और जिसके लिये शास्त्र में जिस कर्म को न करने योग्य-निषिद्ध बतलाया है, बल्कि जिसका न करना ही उचित है- वह अकार्य (अकर्तव्य) है। इस दृष्टि से शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म तो सबके लिये अकार्य है ही, किंतु शास्त्रविहित शुभ कर्मों में भी किसी के लिये कोई कर्म कार्य होता है और किसी के लिये कोई अकार्य। जैसे शूद के लिये सेवा करना कार्य है और यज्ञ, वेदाध्‍ययन आदि करना अकार्य है; संन्सासी के लिये विवेक, वैराग्य, शुभ, दमादिका साधन कार्य है और यज्ञ-दानादि का आचरण अकार्य है ब्राह्मण के लिये यज्ञ करना कराना, दान देना-लेना, वेद पढ़ना-पढाना कार्य है और नौकरी करना अकार्य है; वैश्य के लिये कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यादि कार्य है और दान लेना आदि अकार्य है। इसी तरह स्वर्गादि की कामना वाले मनुष्य के लिये काम्य-कर्म कार्य है और मुमुक्षु के लिये अकार्य है;विरक्त ब्राह्मण के लिये संन्यास ग्रहण करना कार्य है ओर भोगासक्त के लिये अकार्य है। इससे यह सिद्ध है कि शास्त्रविहित धर्म होने से ही वह सबके लिये कर्तव्य नहीं हो जाता। इस प्रकार धर्म कार्य भी हो सकता है और अकार्य भी। यही धर्म-अधर्म और कार्य-अकार्य का भेद है। किसी भी कर्म के करने का या त्यागने का अवसर आने पर ‘अमुक कर्म मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य’ मुझे कौन-सा कर्म किस प्रकार करना चाहिये और कौन-सा नहीं करना चाहिय’-इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में जो बुद्धि का किंकर्तव्यविमूढ हो जाना या संशययुक्त हो जाना है-यही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना है।
  28. जिस बुद्धि से मनुष्य धर्म-अधर्म का और कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर सकता, जो बुद्धि इसी प्रकार अन्यान्य बातों का भी ठीक-ठीक निर्णय करने में समर्थ नहीं होती, वह रजोगुण के सम्बन्ध से विवेक में अप्रतिष्ठित, विक्षिप्त और अस्थिर रहती है; इसी कारण वह राजसी है।
  29. ईश्वरनिंदा, देवनिन्दा, शास्त्रविरोध, माता-पिता-गुरु आदि का अपमान, वर्णश्रम धर्म के प्रतिकूल आचरण, असंतोष, दम्भ, कपट, व्यभिचार, असत्य भाषण, परपीडन, अभक्ष्य भाजन, येयच्छाचार और पर-सत्त्वापहरण आदि निषिद्ध पाप कर्मों को धर्म मान लेना ओर धृति, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या, सत्य, अक्रोध, ईश्वर पूजन, देवोपासना, शास्त्रसेवन, वर्णाश्रम धर्मानुसार आचरण, माता-पिता आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन, सरलता, ब्रह्मचर्य, सात्त्विक भोजन, अहिंसा और परोपकार आदि शास्त्रविहित पुण्य कर्मों को अधर्म मानना-यही अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानना है।
  30. अधर्म को धर्म मान लेने की भाँति ही अकर्तव्य, दुःख को सुख, अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध और हानि को लाभ मान लेना आदि जितनी भी विपरीत मान्यताएं है, वे सब अन्य पदार्थो को विपरित मान लेने के अन्‍तर्गत है।
  31. 31.0 31.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 28-35
  32. किसी भी क्रिया, भाव या वृत्ति को धारण करने की-उसे दृढ़तापूर्वक स्थिर रखने की जो शक्ति विशेष है जिसके द्वारा धारण की हुई कोई भी क्रिया, भावना या वृत्ति विचलित नहीं होती, प्रत्युत चिरकाल तक स्थिर रहती है, उस शक्ति का नाम ‘धृति’ है; परन्तु इसके द्वारा मनुष्य जब तक भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से, नाना विषयों को धारण करता रहता है, तब तक इसका व्यभिचार-दोष नष्ट नहीं होता जब इसके द्वारा मनुष्य अपना एक अटल उद्देश्य स्थिर कर लेता है, उस समय यह ‘अव्यभिचारिणी’ हो जाती है। सात्त्विक धृति का एक ही उद्देश्य होता है-परमात्मा को प्राप्त करना। इसी कारण उसे ‘अव्यभिचारिणी’ कहते हैं। ऐसी धारण शक्ति से परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ध्यानयोग द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को अटलरूप से परमात्मा में रोक रखना ही ‘सात्त्विक धृति’ है।
  33. आसक्तिपर्वक धर्म का पालन करना धृति के द्वारा धर्म को धारण करना है, एवं धनादि पदार्थों को और उनके सिद्ध होने वाले भागों को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर अत्यन्त आसक्ति के कारण दृढ़तापूर्वक उनको पकड़े रखना धृति के द्वारा अर्थ और कामों को धारण करना है।
  34. निद्रा और तन्द्रा आदि जो मन और इन्द्रियों को तमसाच्छन्न, बाहार क्रिया से रहित और मूढ़ बनाने वाले भाव है, उस सबका नाम ‘निद्रा’ है। धन आदि पदार्थों के नाश की, मृत्यु की, दुःखप्राप्ति की, सुख के नाश अथवा इसी तरह अन्य किसी प्रकार के इष्ट के नाश और अनिष्ट-प्राप्ति की आशंका से अन्तःकरण में जो एक आकुलता और घबराहट-भरी वृत्ति होती है, उसका नाम ‘भय’ है यह शक का स्थुल भाव है। तथा जो धन, जन और बल आदि के कारण होने वाली-विवेक, भविष्य के विचार और दूरदर्शिता से रहित-उन्मत्त वृत्ति है, उसे ‘मद’ कहते हैं इसी का नाम गर्व, घमंड और उन्मत्तता भी है। इस सबको तथा प्रमाद आदि अन्यान्य तामस भावों को जो अन्तःकरण से दूर हटाने की चेष्टा न करने इन्ही में डुबे रहना है, यही धृति के द्वारा इनको न छोडना अर्थात् धारण किये रहना है।
  35. मनुष्य को इस सुख का अनुभव तभी होता है, जब वह इस लोक और परलोक के समस्त भोग-सुखों को क्षणिक समझकर उन सबसे आसक्ति हटाकर निरन्तर परमात्मास्वरूप के चिन्तन का अभ्यास करता है (गीता 5/21) बिना साधन के इसका अनुभव नहीं हो सकता- यही भाव दिखलाने के लिये इस सुख का ‘जिसमें अभ्यास से रमण करता है’ यह लक्षण किया गया है।
  36. जिस सुख में रमण करने वाला मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- सब प्रकार के दुःखों के सम्बन्ध से सदा के लिये छूट जाता है जिस सुख के अनुभव का फल निरतिशय सुखस्वरूप सच्चिदानन्दन परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाया गया है(गीता 5/21,24; 6/28)-वही सात्त्विक सुख है।
  37. जिस प्रकार बालक अपने घर वालों से विद्या की महिमा सुनकर विद्याभ्यास की चेष्टा करता है, पर उसके महत्त्व का यथार्थ अनुभव न होने के कारण आरम्भ काल में अभ्यास करते समय उसे खेल-कूद को छोड़कर विद्याभ्यास में लगे रहना अत्यन्त कष्टप्रद और कठिन प्रतीत होता है, उसी प्रकार सात्त्विक सुख के लिये अभ्यास करने वाले मनुष्यको भी विषयोंका त्याग करके संयमपूर्वक विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगे रहना अत्यन्त श्रमपूर्ण और कष्टप्रद प्रतीत होता है यही सात्त्विक सुख का आरम्भ काल में विषके तुल्य प्रतीत होना है।
  38. जब सात्त्विक सुख की प्राप्ति के लिये साधन करते-करते साधक को उस ध्यान जनित सुख का अनुभव होने लगता है, तब उसे वह अमृत के तुल्य प्रतीत होता है उस समय उसके सामने संसार के समस्त भोग-सुख तुच्छ, नगण्य और दुःखरूप प्रतीत होने लगते हैं।
  39. उपर्युक्त प्रकार से अभ्यास करते-करते निरन्तर परमात्मा का ध्यान करने के फलस्वरूप अन्तःकरण के स्वच्छ होने पर इस सुख का अनुभव होता है, इसीलिये इस सुख को परमात्मा बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है।
  40. जब मनुष्य मनसहित इन्द्रियों द्वारा किसी विषय का सेवन करता है, तब वह उसे आसक्ति के कारण अत्यन्त प्रिय मालूम होता है उस समय वह उसके सामने किसी भी अदृष्ट सुख को कोई चीज नहीं समझता, परन्तु यह राजस सुख प्रतीतिमात्र का ही सुख है, वस्तुतः सुख नहीं है। प्रत्युत विषयों में आसक्ति बढ़ जाने से पुनः उनकी प्राप्ति ने होने पर अभाव के दुःख का अनुभव होता है तथा उनसे वियोग होते समय भी अत्यन्त दुख होता है। इसलिये विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला यह क्षणिक सुख यघपि वस्तुतः सब प्रकार के दुःखरूप ही है, तथापि जैसे रोगी मनुष्य आसक्ति-के कारण स्वाद के लोभ से परिणाम का विचार न करके कुपथ्य का सेवन करता है और परिणाम में रोग बढ़ जाने से दुखी होता है या मृत्यु हो जाती है; उसी प्रकार विषयासक्त मनुष्य भी मूर्खता और आसक्ति वश परिणाम का विचार न करके सुख बुद्धि से विषयों का सेवन करता है और परिणाम में अनेकों प्रकार से भाँति-भाँति के भीषण दुःख भोगता है। (गीता 5/22)
  41. निद्रा के समय मन और इन्द्रियों की क्रिया बन्द हो जाने के कारण थकावट से होने वाले दुःख का अभाव होने से तथा मन और इन्द्रियों को विश्राम मिलने से जो सुख की प्रतिती होती है, वह निद्राजनित सुख जितनी देर तक निद्रा रहती है उतनी ही देर तक रहता है, निरन्तर नहीं रहता- इस कारण क्षणिक है। इसके अतिरिक्त उस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रकाश का अभाव हो जाता है, किसी भी वस्तु का अनुभव करने की शक्ति नहीं रहती। इस कारण तो वह सुख भोग-काल में आत्मा को यानी अन्तःकरण और इन्द्रियों को तथा इनके अभिमानी पुरुष को मोहित करने वाला है, और इस सुख की आसक्ति के कारण परिणाम में मनुष्य को अज्ञानमय वृक्ष, पहाड़ आदि जड़ योनियों मे जन्म ग्रहण करना पड़ता है, अतएव यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है।
    इसी तरह समस्त क्रियाओं का त्याग करके पड़े रहने के समय जो मन, इन्द्रिय, और शरीर के परिश्रम का त्याग कर देने से आराम की प्रतीति होती है, वह आलस्यजनित सुख भी निद्राजनित सुख की भाँति भोगकाल में और परिणामों में ही मोहित करने वाला है।
    व्यर्थ क्रियाओं के करने में मन की प्रसन्नता के कारण कर्तव्य का त्याग करने में परिश्रम से बचने के कारण मूर्खता-वश जो सुख की प्रतीति होती है, उस प्रमाद जनित सुख-भोग के समय मनुष्यों को कर्तव्य-अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, उसकी विवेक शक्ति मोह से ढक जाती है अतः कर्तव्य की अवहेलना होती है। इस कारण यह प्रमादजनित सुख भोगकाल में आत्मा को मोहित करने वाला है तथा उपर्युक्त व्यर्थ कर्मों में अज्ञान और आसक्तिवश होने वाला झूठ, कपट, हिंसा आदि पापकर्मों और कर्तव्य कर्मों के त्याग का फल भोगने के लिये ऐसा करने वालों को सूकर-कूकर आदि नीच योनियों की और नरकों की प्राप्ति होती है इससे यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है।
  42. ‘सत्त्व’ शब्द यहाँ वस्तु मात्र यानी सब प्रकार के प्राणियों का और समस्त पदार्थों का वाचक है ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो क्‍योंकि समस्त जड़वर्ग तो गुणों का कार्य होने से गुणमय है ही और समस्त प्राणियों का उन गुणों से और गुणों के कार्यरूप पदार्थों से सम्बन्ध है, इससे यह सब भी तीनों गुणो से युक्त ही है इसलिये पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक तथा देवलोक के एवं अन्य सब लोक के प्राणी एवं पदार्थ सभी इन तीनों गुणों से युक्त है।
  43. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 36-40

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महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

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