भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गायत्री-तत्त्व
किसी गायत्री-निष्ठ सज्जन का प्रश्न है कि गायत्री-मन्त्र का वास्तविक अर्थ क्या है? गायत्री-मन्त्र के द्वारा किस स्वरूप से किस देवता का ध्यान किया जाय? कोई गोरूपा गायत्री का, कोई आदित्यमण्डलस्था श्वेतद्मस्थिता किसी देवी का ध्यान करना बतलाते हैं, कोई ब्रह्माणी, रुद्राणी, नारायणी का ध्यान उचित समझते हैं, कहीं पंचमुखी गायत्री का ध्यान बतलाया गया है, तो कोई राधा-कृष्ण का ध्यान समुचित मानते हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धि में भ्रम होता है कि गायत्री-मन्त्र का मुख्य अर्थ और ध्येय क्या है? इस सम्बन्ध में यद्यपि शास्त्रों में बहुत कुछ विवेचन है, तथापि यहाँ संक्षेप में कुछ लिखा जाता है- गायत्री के तीनों पादों की उपासना करने वालों को लोकात्मा, वेदात्मा और प्राणत्मा के सम्पूर्ण विषय उपनत होते हैं। गायत्री का चतुर्थ पाद ही ‘तुरीय’ शब्द से कहा जाता है। जो रजोजात सम्पूर्ण लोको को प्रकाशित करता है, वह सूर्यमण्डलान्तर्गत पुरुष है। जैसे वह पुरुष सर्वलोकाधिपत्य की श्री एवं यश से तपता है, वैसे ही तुरीय पाद वेदिता श्री और यश से दीप्त होता है। गायत्री सम्पूर्ण वेदो की जननी। जो गायत्री का अभिप्राय है, वही सम्पूर्ण वेदों का अर्थ है। विश्व-तैजस-प्राज्ञ, विराट-हिरण्यगर्भ अव्याकृत, व्यष्टि-समष्टि जगत तथा उसकी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- यह तीनों अवस्थाएँ प्रणव अ, उ, म इन तीनों मात्राओं के अर्थ हैं। सर्वपालक परब्रह्म प्रणव का वाच्यार्थ सर्वाधिष्ठान, सर्वप्रकाशक, सगुण, सर्वशक्ति, सर्वरहित ब्रह्म प्रणव का लक्ष्यार्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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