भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द की लीलाएँ अद्भुत एवं अलौकिक है। भावुकों को तो परमानन्द रसात्मिका लीलाएँ आत्मरूप ही बना लेती हैं, परन्तु अविवेकी कुतार्किकों को वे व्यामोह में भी छोड़ देती हैं- “राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।” जड़ ही क्यों? भगवान की दुर्गम-सुगममंगलमयी सगुण लीलाएँ मुनियों को भी कभी-कभी मोहित कर देती हैं। तभी तो महानुभावों ने कहा है-
नवनीतःचैर्य्य, चीर हरण, रास रस, ये सब लीलाएँ ऐसी हैं कि जिन पर अनेक शंकाएँ की जाती हैं। प्राणियों के कल्याणार्थ महानुभाव समाधान भी किया ही करते हैं, फिर भी बिना कुछ श्रद्धा-विश्वास किये, केवल शुष्कतर्कों से समाधान मिलना कठिन है। भगवान और भगवान की लीला सम्बन्धिनी मति तर्क से नहीं प्राप्त होती- “नैषा तर्केण मतिरापनेया” (श्रुतिः)। आस्तिकता के साथ विचार करने से विदित होता है कि जिन लीलाओं के वक्ता अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्र भगवान श्री शुक हैं, जिन्हें स्वस्वरूपभू परमानन्द रसामृत समास्वादन के सिवा, दृश्यमात्र अत्यन्त असत्कल्प हो चुका है, और श्रोता राजर्षि परीक्षित हैं, साम्राज्य-सिंहासन त्यागकर गंगातट पर निर्जल व्रत धारण किये, कुशासन पर बैठे हुए, आत्म कल्याण के लिये व्यग्र हैं, जिनके जीवन की अवधि कुल सात ही दिन की है, जिस समाज में महा-महा ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि विराजमान हैं, वहाँ किसी भी ग्राम्यकथा का संचार कैसे हो सकता है? अस्तु, आज हम भी चीर हरण लीला पर विचार करेंगे। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के बाईसवें अध्याय में चीर हरण का प्रसंग आता है। उसके पहले, अध्याय में गोपांगनाओं की भग्वत्क्रीड़ा में परम आसक्ति कही गयी है। अब अन्दव्रजकुमारिकाओं की आसक्ति का निरूपण किया जाता है। कुमारिकाएँ श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द भगवान को वर रूप में प्राप्त करने के लिये दुर्गम-संगमनी भगवती कात्यायिनी की अर्चना में लगी हैं। स्मरण रहे कि इनमें परमानन्द रसामृत मूर्ति भगवान की माधुर्य्याधिष्ठात्री महाशक्ति श्रीवृषभानुनन्दिनी और उनकी अंशभूता ललिता, विशाखा प्रभृति, एवं अन्याय नित्य सिद्ध व्रजकुमारिकाएँ भी सम्मिलित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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