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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
ब्रह्म इन्द्रादि देव-शिरोमणियों पर विजय प्राप्त कर लेने से कामदेव को अखर्व गर्व हुआ और उसे रुचि हुई कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक श्रीकृष्णचन्द्र पर विजय प्राप्त करूँ। ऐसा सोचकर भगवान के पास जा, उसने अपना मनोगत भाव प्रकट किया। भगवान ने कहा, कि तुम मुझसे कैसे लड़ना चाहते हो, दुर्ग के आश्रयण से, या मैदान में। काम ने कहा, ‘भगवन! इन दोनों युद्धों का स्वरूप क्या है?’ भगवान बोले कि दुर्ग का युद्ध यह है कि मैं विरक्त होकर, एकान्त निर्जन वन में समाधिस्थ हो जाऊँ, और फिर तुम यदि अपनी माया और कलाओं से मुझे मोहित और क्षुब्ध कर सको, तब तुम्हारी विजय है, और न क्षुब्ध कर सको तो मेरी विजय होगी। मैदान का युद्ध दूसरे प्रकार का है। तब वह सम्भव है, जब श्रीमद्वृन्दावन धाम से यमुना का स्वच्छ सुकोमल पुलिन हो, अमृतमय पूर्ण चन्द्रमा की दिव्य ज्योत्स्ना फैली हो, शीतल-मन्द-सुगन्ध पवन का संचार हो, विविध विहंगों के कलरव एवं भ्रमरमण्डलियों के गुंजार से निनादित पुष्पित वनराजि की लोकोत्तर सुहावनी छटा व्यक्त हो रही हो, हंस-सारस शोभित सरोवर की अद्भुत सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौरस्य सम्पन्न रति के गर्व को दूर करने वाली अपरिगणित व्रजबालाओं के मध्य में उनके मुखचन्द्र का चुम्बन करते हुए, और उनके अवयवों का आलिंगन करते हुए भी, यदि मेरे मन में विकार न हो तो मैं विजयी रहूँगा; और यदि मलयानिल तथा कान्ताओं के हाव-भाव और विलासों से मेरे मन में क्षोभ हो जाय तो जीत तुम्हारी है। कामदेव मन-ही-मन विचार करने लगे कि यदि इन्होंने दुर्ग का आश्रयण किया, तो मेरी विजय फिर नहीं होने की, क्योंकि जिस समय ये नरनारायण रूप से योगासनासीन होकर बदरि कश्रम में तप कर रहे थे, उस समय इन्द्र को यह भ्रम हुआ कि ये मेरे ऐन्द्र पद के लिये तपस्या कर रहे हैं, तब मैं इन्द्र का भेजा हुआ वसन्त ऋतु तथा अप्सराओं के साथ नरनारायण के आश्रम में गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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