भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान और प्रेम
प्रेम तत्त्व का प्राकट्य अधिकाधिक रूप में वहाँ ही होता है, जहाँ जितना ही सन्निधान, जितनी ही अन्तरंगता, जितनी ही प्रत्यक्षता अधिक होती है। जहाँ सन्निधान आदि की जितनी ही कमी, वहाँ उतनी ही प्रेम में भी कमी होती है। इसीलिये अत्यन्त सन्निहित, अत्यन्त अन्तरंग, अति प्रत्यक्ष प्रत्यगात्मा में ही प्रेम देखा जाता है। अन्तरात्मा अत्यन्त अभिन्नस्वात्मा में ही निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेम होता है। जब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण के वत्स-वत्सपों का अपहरण कर लिया, तब श्रीकृष्ण कौतुकवशात् स्वयं ही सब कुछ हो गये। गौओं और गोपालिकाओं को यद्यपि श्रीकृष्णदर्शन, स्पर्शनादि प्राप्त होता था तथापि नन्दरानी का सौभाग्य देखकर उन्हें लालसा होती थी कि व्रजेन्द्रगैहिनी जैसे अपने ललन को हृदय में छिपाकर रखती हैं, बार-बार मस्तक सूँघकर मुखचन्द्र चुम्बन करती है, वैसे ही हम भी करें। उनकी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये ही श्रीकृष्ण अपने-आप ही बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में हो गये। अब तो सभी गायों और वात्सल्यभाववती गोपियों को कृष्ण ही पुत्र के रूप में मिल गये। फिर तो उनके प्रेम में निःसीम वृद्धि हो गयी। अपराध हो जाने पर भी उन बालकों पर पिता-माता को क्रोध नहीं होता था। उनको देखते ही क्रोध न जाने कहाँ भाग जाता था। दूसरे नवीन सन्तानों के उत्पन्न होने पर भी गौओं को उनमें निःसीम प्रेम था। वे नये बछड़ों की परवाह न करके भी उन्हें ही दूध पिलाना चाहती थीं, प्रेम में विभोर होकर उन्हें सूँघती और चाटती थीं, मानों नेत्रों, घ्राणों और जिह्वा से सर्वदा पान कर हृदय में रखना चाहती थीं। जो लोकोत्तर, निःसीम प्रीति उन गोपालिकाओं को कभी अपने बालकों में नहीं थी, वह अद्भुत प्रीति उन कृष्णात्मक वत्स-वत्सपों में हुई। इस विचित्र आश्चर्यमय चरित्र को श्रवण कर जब परीक्षित ने उसका कारण पूछा, तब श्रीशुकदेव जी ने यही कहा कि “राजन! संसार में प्राणिमात्र को अपने आत्मा में सर्वातिशायी प्रेम होता है; कलत्र, पुत्र, क्षेत्र, वित्त, मित्र आदि में इतना प्रेम नहीं होता। देहात्मवादी भी जितना प्रेम देह में करते हैं, उतना देहानुगामी वस्तु में नहीं करते। अपत्य, वित्त, कलत्र आदि में जो होता है, वह केवल आत्मप्रेम का शेष ही है। वेद भी यही कहते हैं कि- “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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