भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रेमतत्त्व
प्रेमतत्त्व को रसिक लोग मूकरसास्वादनवत् कहते हैं। कोई तो आन्तर मधुर वेदना को ही ‘प्रेम’ कहते हैं। कोई स्नेहात्मक अन्तःकरण की वृत्ति को ही प्रेम कहते हैं। यद्यपि वधू आदि में ‘राग’, यागादि में ‘श्रद्धा’, गुरु आदि में ‘भक्ति’, सुखादि की इच्छा, ये सभी प्रेम के ही रूप हैं, तथापि सुखमात्र का अनुवर्तन करने-वाली अन्तःकरण की सात्त्विकी वृत्ति ही प्रेम है। यह प्राप्त, अप्राप्त और नष्ट में भी रहती है। इच्छा नष्ट और प्राप्त में नहीं होती। प्रेम-रसज्ञ लोग रसस्वरूप परमात्मा को ही प्रेम कहते हैं। इसीलिये द्रवीभूत अन्तःकरण पर अभिव्यक्त रसस्वरूप परमात्मा ही प्रेम के रूप में प्रकट होता है। अत: आचार्यों ने कहा है- अस्पृष्ट दुःख निरुपम सुखसंवित्-स्वरूप परमात्मा ही प्रेम है। यह भी कहा गया है- “निरुपमसुखसंविद्रूपमस्पृष्टदुःखं तमहमखिलतुष्ट्यै शास्त्रदृष्ट्या व्यनज्मि।” प्रेमियों का कहना है कि चित लाक्षा (लाख) के समान कठोर द्रव्य है। वह तापक द्रव्य के योग से कोमल या द्रवीभूत होता है। जैसे द्रवीभूत लाक्षा में निःक्षिप्त हिंगल, हरिद्रा आदि रंग स्थायीभाव को प्राप्त होता है, वैसे ही द्रवीभूत अन्तःकरण पर अभिव्यक्त भगवान ही ‘भक्ति’ कहे जाते हैं। भगवान के गुणगण-श्रवण से चरित्र नायक पूर्णतम प्रभु का स्वरूप प्रकट होता है। पुनश्च उनके प्रति स्नेहादि का प्रादुर्भाव होता है। स्नेहादि से चित्त में द्रवता होती है। स्नेहास्पद पदार्थ के दर्शन से उसमें संस्कार उत्पन्न होता है, अत: पुनः-पुनः उसका स्मरण होता है। उपेक्षणीय वस्तु के संस्कार नहीं होते, इसका कारण यही है कि राग के आस्पद या द्वेष के आस्पद पदार्थ को ग्रहण करता हुआ चित्त रागादि से द्रवीभूत हुआ है, इसीलिये उसके संस्कार हो जाते हैं। उपेक्षणीय तत्त्व के ग्रहण-समय में चित्त द्रवीभूत नहीं होता, क्योंकि वह तापक भाव नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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