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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
अनन्तकोटि ब्रह्माण्डजननी पराम्बा रामचन्द्र राघवेन्द्र की हृदयेश्वरी मंगलमय चरणारविन्द को अपनी अविरल अश्रुधराओं से किंचत करता हुआ एक भक्त कहता है- ‘हे अम्ब! कल्याणमयी भगवती! हे देवि! यह आपका अबोध, किंकर्तव्यविमूढ शिशु आपके चरणारविन्द की शरण है। हे माँ! अब यह ताप सहन की सीमा के बाहर हो गया है। हे माँ, मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारा योग्य पुत्र नहीं हूँ। मैं तुम्हारे चरणारविन्द-स्पर्श का भी अधिकारी नहीं हूँ। माँ? फिर भी अधम से अधम, पतित से पतित पुत्र की भी अम्बा उपेक्षा नहीं करती- ‘‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’’ माँ! मुझे तो सबने उपेक्षित कर दिया है। ठीक ही है, तुम्हारे अभिशाप से सन्तप्त की रक्षा, सिवा तुम्हारे और कौन कर सकता है? माँ। तुम तो प्रभु से भी यही कहती हो कि ‘‘न कश्चिन्नापराध्यति।’’ ऐसा व्यक्ति कौन है जिससे अपराध नहीं बनता? यह अबोध शिशु है; इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। इसे पुचकारकर अंक में लेना चाहिये। माँ! तुम्हारे चरणों के बिना सब जगत, सन्तापजनक हो रहा है। संसार में कोई इस अधम को देखने-पूछने वाला नहीं है। माँ ! संसार की विडम्बना से दग्ध हो रहा हूँ। अनेक बार अपमानित और तिरस्कृत हुआ, फिर भी तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सकता। अपने ही अपराधों के कारण स्थिर प्रबोध, स्थिर वैराग्य नहीं होता। हे पुत्रवत्सले! तुम्हारे बिना आशा के अनुकूल ही नहीं, आशा से भी अधिक कारुणिक हृदय से अपराधी पुत्र को दूसरा कौन पुचकार सकता है? माँ! जिनके लिये त्याग, बलिदान किया गया, जिनके लिये अगणित दुःख भोगे गये, जिनके हितार्थ कितने ही अनुष्ठान किये गये, जिनके लिये अगणित आँसू बहाये गये, वे सब मेरे रोने-धोने को सुना-अनसुना, देखा-अनदेखा करके अपने-अपने काम में लग गये। किसको समय है जो मुझ जैसे पागलों के प्रलाप सुने? माँ! उस दिन शिप्रा के तट पर तुम्हारी स्मृति आयी थी और तुम्हारे चरणों का स्मरण किया था। तुम्हारे चरणों में कुछ अश्रु चढ़ाये गये थे। परन्तु पुनः वही विस्मृति छा गयी। फलस्वरूप उपद्रव भी वे ही के वे ही वर्तमान हैं। माँ! तुम्हीं सिद्धि-बुद्धिस्वरूपा गणपतिप्रिया हो। माँ! तुम्हीं अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड की ऐश्वर्याधिष्ठात्री विष्णुप्रिया महालक्ष्मी भी हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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