भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गजेन्द्र-मुक्ति
क्षीरसागर से आवृत एक त्रिकूट पर्वत था। उसके चाँदी, लोहे और सोने के श्रृंगों की दिव्य दीप्ति से क्षीरसागार और सारी प्रदीप्त हो रही थी। नाना प्रकार के रत्नों, मणियों, वृक्षों, लताओं तथा पक्षियों, सिद्ध चारण, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराओं से उस पर्वत की शोभा निरन्तर बढ़ रही थी। उसी पर्वत की द्रोणी में ही एक बड़ा विशाल सरोवर था जिसमें बहुत से कंचन वर्ण के पंकज शोभायमान थे। कुमुद, कमल आदि की श्री, समवेत षट्पदों के घोष और पक्षियों के कलनाद से उसकी शोभा बड़ी अद्भुत हो रही थी। उसी पहाड़ और जंगलों में एक गजेन्द्र रहता था। वह अपनी हथिनियों और यूथों के साथ संकण्टक वेणु और नेत्रों के वनों को तोड़ता-फोड़ता, बड़ी-बड़ी वनस्पति को भी गिरता हुआ सरोवर में स्नान करने के लिये चला। उसकी गन्धमात्र से दूसरे हाथी, सिंह, व्याघ्र, व्याल आदि भयभीत होकर भागने उगे। उसके अनूग्रह से हरिण, शश आदि क्षुद्र जन्तु निर्भय होकर विचरण करते थे। घाम से तप्त होकर तमवाले हाथियों और हथिनियों के साथ अपनी गुरुता से उस पर्वत को प्रकम्पित करता हुआ, मद पीने वाले भ्रमरों की मालाओं से निवेषित वह गजेन्द्र पंकजरेणुरूषित वायु को सूँघता हुआ सरोवर के पास जा पहुँचा। तृषार्दित अपने यूथ के साथ उस सरोवर में प्रविष्ट होकर उसने खूब जल पीया और अपनी शुंड से जल डाल-डाल कर अपने को नहलाने लगा। शुण्डोद्भृत जलकणों से अपनी हथिनियों और बच्चों को पिलाने और नहलाने में दूसरे गृहस्थों के समान ही वह दयालु गजेन्द्र संलग्न हो गया। ईश्वर की माया से मोहित होने के कारण उसे विपत्ति दृष्टिगोचर नहीं हुई। इतने ही में कोई दैवप्रेरित बलवान ग्राह ने आकर क्रोध से उसके पाँव को पकड़ लिया। महाबलवान गजेन्द्र अपने को छुड़ाने के लिए बड़ा प्रयत्न किया। उसे आतुर देखकर हथिनियों और हाथियों ने भी छुड़ाने का प्रयत्न किया, परन्तु ग्राह से काकृष्ट गजेन्द्र को बचाने में असमर्थ होकर वे दीन बुद्धि से चिल्लाने लगे। गजेन्द्र कभी ग्राह को बाहर की तरफ ले जाता था और कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर की तरफ ले जाता था। इस तरह परस्पर एक-दूसरे को खीचते और लड़ते हुए हजारों वर्ष बीत गये, फिर भी दोनों जीते रहे। देवता भी आश्चर्य मान रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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