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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
बुद्धावतार का प्रयोजन
कुछ लोगों के प्रश्न होते हैं कि बौद्वमतप्रवर्तक बुद्धदेव भगवान के नर्वे अवतार माने जाते हैं, हर एक संकल्प के देश-कालसंकीर्त्तन में ‘‘बद्धावतारे’’ पढ़ जाता है, फिर उनसे प्रतिष्ठापित धर्म अधर्म कैसे हो सकता है? ‘‘कुछ लोग यह भी कहने लगते हैं कि बुद्ध ने वेदों और वैदिक धर्म का खण्डन नहीं किया, किन्तु वैदिक धर्म में फैले हुए पाखण्डों का खण्डन किया है। आगे चलकर बौद्ध धर्म में अनाचार फैल जाने से भगवान ने ही श्री शंकराचार्य रूप से अवतीर्ण होकर उसे दूर किया। इस पर वैदिको का कहना है कि अवश्य ही बुद्ध भगवान के अवतार थे। परन्तु जिन पुराणों में बुद्धावतार वर्णन है, वहीं उसका प्रयोजन भी कहा गया है। यह ठीक है कि गीता के कथनानुसार भगवान का अवतार धर्मग्लानि एवं अधर्माभ्युत्थान को मिटाने और धर्मसस्थापन के ही लिये होता है। इसी दृष्टि से बुद्धावतार का भी यह प्रयोजन अवश्य होना चाहिये। यहाँ यह समझ लेना चहिये कि जैसे वैदिक धर्म में अधिकारियों की प्रवृत्ति न होना दोष है, वैसे ही अनधिकारियों की प्रवृत्ति होना भी दूषण ही है और जैसे अधिकारियों को कर्मों में प्रवृत्त करना आवश्यक है, वैसे ही अनधिकारियों की निवृत्ति भी आवश्यक है। ये दोनों की कर्म दुष्कर हैं। आज जो पुराणश्रवण और मन्दिर-शिखरदर्शन से ही कृतकृत हो सकते हैं वे ही नव्य लोगों के बहकाने में आकर शास्त्रमर्यादा के विपरीत वेदाध्ययन तथा मन्दिर-प्रवेश चाहते हैं और हितैषियों के समझाने से भी नहीं मानते हैं। किसी समय ठीक ऐसी स्थिति हो गयी थी। वेदाध्ययन तथा तदुक्त अग्निहोत्रादि कर्म के अनधिकारी देवताओं का अभिनव करने की दृष्टि से इन कर्मों में प्रवत्त हो गये और यज्ञ-व्याज से पशुवध तथा सुरापान का विस्तार करने लगे। शास्त्रों में यज्ञ के अंगरूप से यद्यपि पशुवध अनुमोदित है तथापि यज्ञ-व्याज से उदर-पोषाणा पशुवध पाप ही है। इस तरह धर्म की ओट में अधर्म का प्रचार होने लगा। उस समय किसी के समझाने बुझाने से भी उनकी उन कर्मों से निवृत्ति असम्भव थी। ऐसी स्थिति में उन्हे उन कर्मों से निवृत्त करने के लिये भगवान को श्रद्धेय बनकर प्रकट होने की आवश्यकता प्रतीत हुर्इ बस, इसीलिए बुद्धावतार हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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